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________________ प्राकृत व्याकरण * [२६१ なかなかかないのか分かるか分からないから00000000000000000000 विवेचना मागे को सूत्रों में की जा रणार्थ कियाओं के कुछ सामान्य बाहरण इस प्रकार है:दर्शनातेदारसई-वह दिखलाता है . कास्यनि - काइ, करावई, करावद - वह कराता है। हासयति = हासंइ, हमावइ, हमाबेइ-वह हँमाता है । उपशाभय ते = उपाइ, घसमावइ, उसबमाह - वह शांत कराता है। 'चहलम् सूत्र के अधिकार से किती कि समय में और किमा किस धातु में सरोक्त 'एत-ए' प्रत्यय की संयोजना नहीं भी होती है। जैसे:-ज्ञापाते-जाणविइ -- वह बतलाता है । यहाँ पर 'ज्ञापयर्यास' के ग्थात पर 'जाणइ रूप का प्रेरणार्थक में निषेध कर दिया गया है। कहीं कहीं पर 'श्रावे' प्रत्यय की भी प्राप्ति नहीं होती है। जैसेः-पायय ते मापद यह पिलाता है । यहाँ पा. 'राययत्ति' के स्थान पर 'पावेइ' रूप का निषेध हैं। जानना । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-भावयति =भावेई वह चिंतन करता है । यहाँ पर मंस्कृत रूप 'भावयति' के स्थान पर प्राकृत में 'भावावइ' रूप के निर्माण का अभाव हो जानना चाहिये । इस प्रकार से प्रेरणार्थक क्रियाओं का विशेष विशेषताएं आगे के सूत्रों में और भी अधिक बतलाई जाने वाली है। दर्शयति संस्कृन औरणार्थक किया का रूप है । इसका प्राकृत रूप दरिषद होता है। इसमें सूत्रसंख्या-.-१५ से रेफ रूप हलन्त व्यञ्जन 'र में पागम रूप 'इ' की प्रालि, १-२६० से 'श' के स्थान पर म' को प्राति; ३.१४६ से प्रेरणार्थक-या-रोधक संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत म अत ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्त प्रेरणार्थक पाकृत धातु दरिस' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय पान्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक-क्रिया बायक प्राकृतीय धातु रूप दारिसह सिद्ध हो जाता है। कारयति संस्कृन प्ररणार्थक क्रिया का रूप है । इसके प्राकृत म्हप कारेइ, करावइ, और कराबेइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूत्र संख्या-३-१५३ से मूल प्राकृन-धातु 'कर' में स्थिन आदितव स्वर 'डा' के स्थान पर आगे पार्श्व स-किया-बोधक-प्रत्यय 'अन्' अथवा 'एतका लोप होने से दीर्घ स्वर 'आ की प्राप्ति; ३.१५८ में प्राप्त प्रेरणार्थक-धातु-अं । 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर नागे वर्तमानकाल बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३.१३६ से प्राप्त प्रेरणार्थक प्राकन धातु 'कारे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्थानीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कारेड़ सिद्ध हो जाता है। करायइ एवं फरावेइ में सूत्र-संख्या ३-१४६. से मूल प्राकृत धातु 'कर' में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-माघ में संस्कृतीय प्रारतम्य प्रत्यय 'श्रय' के स्थान पर प्राकृत में कम से यात्र और श्रावे' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से मूल धातु 'कर' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के साथ में अागत प्रत्यय 'आव एवं आवे' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'आ' की संधि होकर अंगरूप 'कराव और करावं' की प्रानि और ३-१३१ से प्रात प्रेरणार्थक प्राकृत धातु अंगों में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय और तृतीय रूप क्रम से करावड़ और करावेइ दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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