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________________ * प्राकृत व्याकरण * [२७३ ] 100000000かかりま すので、なかなかなかなかなかなかなかっ किसी भी स्तर के लिये नहीं है; एमा प्रदर्शित करने के लिये हो 'अकार' वर का उल्लेख मूल-मूत्र में करना ग्रन्थकार ने आवश्यक समझा है । जैसे:-दोषयति = दूमेइ - वह शेप दिलाता है। इस उदाहरण में 'दूम' धातु में आदि में 'अकार' नहीं हो कर उ कार' का सद्भाव है। तदनुसार णि जन्त-बोधक रूप का सद्भाव होने पर भी एवं शिजन्त बोधक-प्रत्यय 'एत' का सद्भाव होने पर भी इस धातु में आदि-रूप से स्थित 'उकार' को 'श्राकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। इस पर से यहो निष्कर्ष निकलता है कि धातु में • यदि 'श्रकार' हो श्रादि रूप से तथा स्पष्ट रूप से और अव्यवधान रूप से स्थित हो तो उसी को 'आकार' की प्राप्ति होती है। अन्य किसी भी स्वर को 'आकार' की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्राकृत भाषा के कोई कोई व्याकरणाचार्य ऐसा भी कहते हैं कि यदि पातु में गिजन्त-बोधक प्रत्यय 'आचे और आवि' का सद्भाव हो तथा उप अवस्था में धातु के श्रादि में 'श्रकार' स्वर रहा हुआ हो तो उस 'अकार' स्वर को प्राकार' को प्राप्ति हो जाती है । जैसे-कारयति = कारावेद - वह कराता है। हासितः जनः श्यामलया = हासावित्रो जणो मामली श्यामा (खा) से (वह) पुरुष हँसाया गया है । इन उदाहरणों में मूल प्राकृत-धातु 'कर और हम' में |ण जन्त बांध प्रत्यय 'श्रावे और प्रावि' का सभाष होने पर इन धातु में स्थित आदि 'अकार' स्वर को 'श्राकार' में परिणत कर दिया गया है। इस प्रकार 'श्राव और 'प्रावि' गिजन्त-बोधक प्रत्ययों के भाव में धातुस्थ आदि 'अकार' को 'प्राकार' में परिणत कर देने का वैकल्पिक रूप अथवा पार्षरूप अन्यत्र भी जान लेना चाहिये। ___ पातयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है । इसका प्राकृत रूप पाहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या४.२१६ से मूल संस्कृत-धातु 'पत' में स्थित अन्त्य ध्यान 'स्' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, ३-१५३ से प्रामाग पड' में स्थित आदि 'कोर' को आगे णिजन्त-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'श्राकार' की प्राप्ति; ३-१४६ से प्राप्तांग 'पा' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'इ' में णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'अत: अ' की प्राप्ति और ३-५३६ से णिजन्त-भाव वाले प्राप्तांग 'पाड' में वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-क्रियापद का रूप पाडइ सिद्ध हो जाता है। मारयति संस्कृत का प्रेरणार्थक-रूप है । इसका प्राकृत प मारइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या४-२३४ से मूल संस्कृत-धातु 'म' में स्थित अन्त्य स्वर '' के स्थान पर 'अर' की प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्तांग'मर' में स्थित आदि 'श्रकार के स्थान पर आगे णिजन्त बोधक प्रस्थय 'अत-प्र' का सदभाव होने से 'आकार' की प्राप्ति १-१० से प्राप्तांग'मार' में स्थित अन्य स्वर 'अ' के आगेणिजन्तबोधक. प्रत्यय 'अत्-अ' की प्राप्ति होने से लोप; ३.१४६ से प्राप्तांग हलन्त 'मार' में णिजन्त बोधक प्रत्यय 'अत - अ' की प्राप्ति और ३-१६ से णिजन्त-भाव वाले प्राप्तांग 'मार' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णिजन्तमर्थक वर्तमान-कालीन प्राकृत-क्रियापद का रूप भारइ सिद्ध हो जाता है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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