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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ७१ terroronar000000000rasoosrotococcorrrrrrro00000rsorrnsoosteroo000000+ प्रत्यय की प्राप्ति कमी होती है, और कभी कभी नहीं भी होती है। जैसे:-हे. देव ! देव ! अधषा हे देखो !हे क्षमा-श्रमण ! हे खमा-समरण ! अथवा हे खमा-ममरणो !; हे पाये ! हे अज्ज ! अथवा हे अजी। इसी प्रकार से प्राकृत-भाषा के इकारान्त तथा उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा-विभक्ति के एक वचन में सूत्र-संख्या ३-१६ के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" के स्थान पर शप्त होने वाले "अन्त्य हस्थ म्बर को दीर्घत्व" की प्राप्ति की होती है और कभी नहीं भो होनी है । जैसेः-हे. हरे :-हे हरी, अथवा हे हरि!; हे मुरो ! हे गुरू! अथवा हे गुरु |; जाति--विशुद्धन हे प्रभो ! =जाइ-विसुद्धण हे पहू ! इसी प्रकार से दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-हे द्वौ जित लोक ! प्रभो ! हे दोगिण जिन्न-लोए पहू ! अर्थात हे दोनों लोकों को जोतने वाले ईश्वर ! अथवा वैकल्पिक पक्ष में 'हे प्रभो !' का 'हे पहु' भी होता है। इस प्रकार से इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शम्भ में संबोधन-अषस्था के एक वचन में अन्य हस्व स्वर को दीर्घत्व की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुश्रा करती है। अकारान्त पुल्लिग शब्दों में भी संबोधन-अवस्थों के एकवचन में प्रथमा-विमक्ति के एक वचन के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'ओ' के श्रभाष होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्रारित वैकल्पिक रूप से हुआ करती है । जैसे:--हे गौतम ! हे गोआमा ! अथवा हे गोश्रम ! हे कश्यप ! हे कालवा ! अथवा हे कासव ! इत्यादि । इस प्रकार उपरोक्त विधि-विधानानुसार संबोधन-प्रवस्था के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग शब्दों में तीन रूप हो जाते हैं, जो कि इस प्रकार हैं:-(१) 'औ' प्रत्यय होने पर; (२) वैकल्पिक रूप से 'श्री' प्रत्यय का अभाव होने पर मूल रूप की यथावत् स्थिति और १३) अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घत्व को प्राप्त होकर 'आ' की उपस्थिति । जैसे:-हे देव ! हे देवा ! हे देवो ! हे स्वमा ममण ! हे खमासमणा ! हे खमाप्तमणो ! हे गोश्रम ! हे गोधमा ! हे गोअगो ! इत्यादि ! विशेष रूप अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी संबोधन-श्रवस्था के एक वचन, में "ओ" प्रत्यय के अभाव होने पर अन्त्य "अ' को वैकल्पिक रूप से "आ" की प्राप्ति हुअा करती है । जैसे:- रे ! रे ! निष्फलक ! = रे ! रे ! चाफलया ! अर्थात् 'अरे ! अरे ! निष्फल प्रवृत्ति करने वाले । रे! रे ! निघणक ! = रे ! रे ! निम्धिणया ! अर्थात् अरे ! अरे ! दयाहीन निष्ठर इन उदाहरणों में संबोधन के एक वचन में अन्त्य रूप में "यात्व" की प्राप्ति हुई है। पक्षान्तर में "रे ! घफलया ! और रे ! मिम्धिणय ! " मी होते हैं । यो मम्बोधन के एकब वन में होने वाली विशेपताओं को समझ लेनी चाहिये । हे देव ! संस्कृत संबोधन एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप हे देव ! और हे देवो! होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-३८ से सम्बोधन के एक वचन में प्रथमा-विभक्ति के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय "यो" की बैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप-हे देव और हे देवो सिद्ध हो जाते हैं।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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