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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # *6669969 [ २९२ ] की कार्यातिदेश की प्राप्ति नहीं होती है; क्योंकि स्त्रीलिंग वाले शब्दों के लिये ष्ठी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु अलग हो एक अन्य सूत्र संख्या ३००६ का विधान किया गया है। जो कि इम प्रकार है:- टाइम के स्वादि देवा तु । 44404 सप्तमी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण हेतु जो सूत्र 'डेम्नि डे (३-१२ ) का विधान किया गया है; उसका कार्यातिदेश पुल्लिंग और नपुंसक लिंग वाले इकारान्त उकारान्त आदि शब्द के लिये भी होता है । किन्तु इसमें यह विशेषता रही हुई है कि 'डे' प्रत्यय का सद्भाव इन शब्दों के लिये नहीं होता है; जैसा कि सूत्र संख्या ३-१२८ में ऐसा निषेध कर दिया गया है। वक्त सूत्र प्रकार है: - ' ' । इसी प्रकार से स्त्रीलिंग वाले आकागन्त, इकारान्त उकारान्त आदे शब्दों के लिये भी सप्तमी विभक्ति के एकवचन के रूपों के निर्माण में उक्त सूत्र संख्या ३-११ का कार्यातिदेश नहीं होता है; किन्तु सूत्र- संख्या २०१६ की ही कार्य शीजना उक्त स्त्रीनिंग वाले शब्दों के लिये होती है ! पुल्लिंग और नपुंसक लिंग वाले शब्दों के उदाहरण इस प्रकार है: - गिगै-गिरिनि पहाड़ पर अथवा पहाड़ में; गुरी गुरुम्मिगुरूजनों में अथवा गुरूजन पर दनि अथवा दान-हिम्मदा में बवा दही पर मधुनि=मम्मि = मधु पर अथवा मधु में इत्यादि । सूत्र-संख्या ३-१२-जस-स- इस दो- दो- द्वामि दीर्घः' के अनुसार प्राप्तन्य स्वस्वर की दीर्घा का विधान उपरोक्त संबंधित सभी रूपों में होता है; ऐसा जानना चाहिये। कम से उदाहरण इस प्रकार है: - प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का दृष्टान्त - गिग्यः अथवा गुरवः तिष्ठन्तिगिरी गु चिन्ति=अनेक पहाड़ अथवा गुरूजन हैं। द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का दृष्टान्तगिरीन् अथवा गुरुन पश्यगिरी अथवा गुरू पे पहाड़ों को अथवा गुरूजनों को देखो। पंचमी विभक्ति के एकत्रचन और बहुवचन का दृष्टान्त - गिरेः गिरिभ्यः, सुगे:, गुरूभ्यः आगतः=गिओ गुरूओ आओ पहाड़ से, पहाड़ों से, गुरू से, गुरुओं से आया हुआ है । षष्ठों के बहुत का टशन्- गिरीशाम् गुरूणाम् धनमगिरीण, गुरुण धर-पहाड़ों का गुरुजनों का धन । सूत्र-संख्या ३-१३ भ्यसि वा' की कार्यातिदेशता की प्राप्ति उपरोक्त आकारान्त इकारान्त उकारान्त आदि शब्दों के संबंध में नहीं होती है; किन्तु सूत्र संख्या ३-१६ ' इतो दीर्घः' को कार्यातिदेशता की प्राप्ति इकारान्त और उकारान्त शब्दों के लिये नित्य होती है; ऐसा विधान वृति में 'नित्यं विधानात' शब्दों द्वारा मन्यकार ने प्रकट किया है। इसी प्रकार में 'दाण-शम्येत (३-१४ ) और 'सिग्ध्यपि (३-२५)' सूत्रों की कायनिदेशता का निपेत्र आगे सूत्र संख्या ३०२२३ में प्रकट करके वृत्तिकार यह बतलाते हैं कि आकारान्त इकारान्त उकारान्त बाद शब्दों के अन्त्य स्वर को उपरोक्त विभक्तियों के प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'ए' की प्राप्ति नहीं होती है। इस विषयक उदाहरण आगे सूत्र संख्या ३-१९१६ में प्रदान किये गये हैं।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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