Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 625
________________ चतुर्थ-पाद की शब्द-सूची (अ) बइ उप. : अति) बहुत. ४२५ । अंकसह पु. (अकुशानाम् अकुशों का, ३४५, ३८२ । अच्छइ अक्र. (गच्छति) बह जाता है. १६२ । | ४ग-अङ्ग (अङ्ग) शरीर के अंग ३३२ । वाहतुङ्गन्तणु न, (अतितु मत्वम्) बहत ऊचापना,३९० । | अंगहि पु. (बङ्ग) शरीर के अंगों से. ३३२ । अहमत्त वि. (अतिमतानाम् । बहुस मस्स, पागल हुओं अंगे पु.(अगे. अग पर, अंग में, ६३ । का, ३५५ । ! अंगुमह सक (पूरयति) वह पूर्ति करता हैं,वह पूरता अरदिप वि. (अतिरक्तया) बहुत लाल रंग वाली हुई १६९। से; ४२८॥ अंगुलित्र स्त्री. (अगुल्यः) अंगुलियां, अइसो वि. (ईदृशः) ऐसा, ४०३ । अंगुलिश्री स्त्री. (अंगुल्म:) अगुलियाँ ३४८ । अईइ अरु. (गच्छति) वह जाता है; १६२ । अचिम्तिश्न वि. {चिन्तिता) बिना सोची हुई ४२३ । अंसुन. (अश्रु) आंसु ४१४, ४३१ । अच्छ, अच्छा अ आस्ते) बैठता हैं, २१५, ३८८ । अहि पु. (अनि) पाय, पैर; • ८८ । अच्छते, अच्छति अक । आस्ते) बंटता है, अकन्दइ अक, थाक्रन्दति) बह रोता है, यह चिल्लाता | अच्छदे,अच्छादि अक. (आस्ते) बैठता है, २७४ । है; १३१॥ अच्छउ अक. बैठे ४०। अकमइ सक. (आक्रमते) बह आक्रमण करता है, वबाला | अच्छ दि. (अच्छ) स्वच्छ, ३५० । है। १६० । ! अच्छि अक. (आस्स्य ) तू बंट, ३८८। अक्कुसइ सक. (गच्छति, वह जाता है; १६२ । । अच्छिन्दइ सक (आच्छिन्ति। वह थोड़ा छेद अक्खण ब. क. [आख्यातुम] कहने के लिये; २५०। करता है, १२५ । अक्खिवह सफ. [आक्षिपति] वह प्राक्षेप करता है:१४५ । अज्जो पु. ( आर्यः ) श्रेष्ठ पुरष, २६६ । अक्सिहिं पूस्त्री.न.[अक्षिभिः] आंखों से; ३५७,३९६ । अब्ज अ. (अध ) आज, ३४३, ४१८॥ श्रक्वाडेइ सक. [कर्षति] म्यान से तलवार को खींचता, अश्वा सक. (कर्षति) वह खींचता है, जोतता है, है, १८८॥ अखद वि. (अक्षये) नाश नहीं होने पर, ४१४। | अब्यदिशं स्त्री. । अन्य दिर्ग। दूसरी दिशा को, २९३ । श्रगान. [अन] आगे का भाग, ऊपर का भाग, ३२६। अभयली पू. स्त्री. अिजलि:) हाय का संपुर. २९३ । अगदी अ. [अनतः] आगे से सामने. २८३ । । अब्बातिसो वि. (अन्यादृशः) दुरारे के जैसा, २९३ । अगह म. (अमवः) आगे, सामने, ३९१, ४२२ । । अट्टइ-परिचट्टाइ सक. (अटति, पर्यटति) घूमता है, अग्गल पु. वि. (अग्रलक:) सामने वाला, ३४१ । २३०॥ अम्गल पु. (अर्गलः) किवार बन्द करने की लकड़ी,४४४।। अदृद्ध सक. (क्वथ्यते) वह क्वाय करता है, ११२ । अग्गिदउ वि. (अग्निष्ठः) आग में रहा हुआ, ४२९ । | अडोहित वि. (अनवगाहितम्) नहीं स्नान फिया हुआ, अम्गी पु. स्त्री. (अग्नि) आग, वह्नि. ३४३, । ४३९ । अग्घह अक. (अहति) वह योग्य होता है, ३८५। | अक्खा सफ. (क्षिपति फेंकता है, अम्बइ सफ (राजते) वह शोभता है, चमकता है, १०० । गच्छह सक, कर्षति) म्यान से तलवार को खींचता है, अग्घायइ सक (आजिघ्रति) वह सूघता है, ९३ । १८७॥ अग्घाड़ा सक. (पूरयति, यह पूर्ति करता है, पूरा करता अणन्तर वि. (अनन्तर ) व्यवधान रहित, २७७ ॥ १६९! अपाल पु. (अनल) अग्नि, ३९५, ४१५, ४२९ ।

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