Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 641
________________ जत्त अ. (पत्र) जहाँ पर; ४०४ । । जाइटिए सर्व. (यद् पद् दृष्ट' तद् तत् जो जो देखा जधा अ. (यथा, जैसे, जिस प्रकार, २६० । गया है. वह वह, ४२२ । जन्त व.क. (यांल) जाते हुए को, ४२० ई .सनिधी या को, अपने स्वधर्मी समु. अम पु. (यमः । यमराज, ३७०, ४४२ । | दाय को, ३६५. " जमड़ो पु. (यमस्य) यमराज के, ४५९ । ! जाउ अक. वि. (जायताम्) (यातु) जावे, (जात हुआ, जम्पइ सकः (कथयति) कहता है, २। ३३२, ४२०, ४२६ । " जम्पि सक. (जल्प) बोलो, कहो, ४४२ । , जाउँ बफ. यावत् । जब तक, ४०६ । जम्पिरहे वि. (जल्पनशीलायाः) बोलती हुई के, ३५० । | जागर अक. (जागति) जागता है, ८०। जम्मानइ, जम्भाइ अक. | जम्भति) वह जॅमाइ, उसी | जाणणं न. (ज्ञानं | जानना, शान, लेता है. २४०। जाणियह सक. (जायते) जाना जाता है. ३३० । जम्मद अक, (जायते) वह उत्पन्न होता है, १३६ । । जाम अ. (यावत् । जब तक, ३८७, ५०६ । जम्मु न.पू (जन्म) उत्पत्ति, पैदा होना, ३९६,३९७, जामहि न. अ. (यावत्) जब तक, ४२२ । जाया वि. (जाती) उत्पन्न हो गये हैं. ३५०, ३६७ । जयपु. (जय) जीत, विजय, ३७०. जाल पु. (ज्वाला) अग्नि, ४२९, ३९५, ४१५ । जयस्सु नं. (जगतः) जगत का, विश्व का, ४४० । जाव अ. (यावत्) जय तक, २७८ । जया अ. (यदा) जब २८३ | जावे अ. । यावत् ) जब तक: ३१५। जर स्त्री. (जरा) बुढ़ापा ४२३ । जावेद सक. (यापयति) बह गुजारता है, वह बरतता जरह अक. (जरति) वह पुरना होता है, बड़ा होता है, ४ ४ । , जि . (एव) हो, ३४१, ३८७, ४०६, १.१. जरिज्मइ, जीरइ अक. (जीर्यते । जीर्ण हुआ जाता है.. ४१९, ४२०, ४२२, ४२३, ४२९ । बूढ़ा हुआ जाता है, २५०। जि--- जल न. (जलं) पानी, २८७ ।। " जया सक, (जयति) जीतता है, २४१। जलं न. (जल) पानी, ३०८ ।। " जिणाइ सक. (जयति) वह जीतता है, २४१ । " जलु न. (चलं) पानी, ४२२ ३९५, ४१९, । " जिणिज्जइ कर्मणि (जीयते) उससे जीता जाता है। २४२ । " जलि न. (जले) पानी में, ३८३, ४१४ । " जिब्बाद कर्मणि. (जीयते उससे जीता जाता है.२४२ ॥ " जले न. (जले) जल में, पानी में, " जेपि सं. कृ. (जित्वा) जीत करके, ४४०, ४४१ । " जलहु न. (जलात) जल में से। " जिणेखि सं. कृ. (जिस्वा। जीत करके ४४२। जलद प्रक. (ज्वलति) जलता है, "जेऊण सं, क. (जित्वा) जोत करके, २३७, २४१ । जलणो पु. (ज्वलनः) अग्नि, ३६. | जिशिऊण सं. कृ (जित्वा) जीत करके, २४१ । " जलणि पु. (त्रलने) आग में, ४४४। " निज्जव वि. (निजितक:) जो जीत लिया गया है, जवइ सक. (याययति) गमन करवाना. भजना ,४० । । जह अ. (यथा) जैसे, जिस प्रकार, ४१६ । " विणिज्जिनउ वि (विनिजितकः) जो पूरी तरह से जहा सर्व. (यस्मात्) जिससे, जीत लिया गया है। ३९६ । जहिं अ. (यत्र ) जहां पर, ३४९, ३५७, ४२२ । जिइन्दिए वि. (जितेन्द्रियः) जिसने अपनी इन्द्रियों को लाई अक, (जायते) वह उत्पन्न होता है, १३६ । | जीत लिया है, २८७ । जाइ अक. (याति) वह जाता है, १४४, ३५०, | जिण पु.वि. (जिन) तीर्थ कर, अरिहंत, ४४४ । ४४१ । । जिटिभन्दिन न. (जिव्हेन्द्रियम्) जिह्वा इन्द्रिय को ४१७ ।

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