Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 668
________________ [ ६२ ] ए. वयण न. (बदन) मुख, ३९६।। बलाह अक. (आरोहति) चढ़ता है, २०६। " वयणु न बदन) मुख, ३५.. वलणं न. (वरणम्) पसद करना, वरना, २९३ । " यया न. (बचन) वचन, ३६७। वलणाई न (वलनानि ) आड़ा टेढ़ा पना, ४२.. " अयणाई न. (वचनानि) वचन शन, ३४०। बलन्ति अक, (ज्वलन्ति ) जलते हैं, ४१६॥ वर्षियदे वि. (वजितः) मना किया हुषा, २९२।। " यालिट वि. (ज्वालित) जलाई दुई, प्रज्वालिन,४१ । वर-वरह सक. (वृणोति) पसन्द करता है, २३४ | वलय पु.न (बलय) चूड़ी, कंकण, ४४४ । " बारिश्रा वि. (वारितः) रोका गया था, ३३० ४.८।। वलया पु.म. (बलयानि चूड़ियाँ "निवारेच सक. (निवारयति) निषेध करता है २२ । ! वरूनह बि. (बल्लभ। प्रिय पति, ४४४ । "संवरह सक. (संवरति) समेटता है, रोकता है, ८२। " बल्नहार्ड वि. (वल्लभक) पारा, ३५८, ४२६ । " संवरेविहे. कु, (संबरीतुम) समेटने के लिये, ४२२। " बह वि (वल्लभे) भ्यि में, प्रिय के लिये, ८३॥ " वर वि (बर) श्रेष्ठ, भावी पति, ३७० । | वताउ पु. (यवसायः) धधा, पोपार, ३८५, ४२२ । "बरं न.(वर) वरदान को, | वश पु.न. (यश) काबू में, कारणा से, २८८ । " वरही वि. {वरम्य) श्रेष्ठ के. ४४४ । ! वशाहे वि. (वसाया:) रहने वाली का; १४. " वरेहिं वि. (वरैः) श्रेष्ठों से, ४०२. वनले वि. वत्सलः) प्रिय, स्नेही; वरहाहा' अक. (निःसरति) बाहिर निकालता है, ७९। वश्चा वि. (वरसा) प्रिय; लड़की, वरि अ. (वर) श्रेष्ठ, वरित पु. न. (वर्ष, बारह महीनों का रामय, ३३२, '" वसन्ति अक. (बसन्त) रहते हैं, " निवसन्तेहिं वि (निवसदिमः) रहते हुओं से, ४२२ । बत " पवमह सक. : प्रदसति) अन्य देश को जाता है, २५९ । "निअत्तइ थक. (निवर्तते) लौटता है, पवसन्ते वि. (प्रवसन्तेन) परदेश में रहते हुए से, " निबट्टाइ वि. ( निवृत्तानाम् ) पीछे आये हुओं का, " पवसन्ति वि. (प्रवसता) प्रवास में रहने वाले के साथ, " पयः अक, (प्रवर्तते) आगे बढ़ती है, ३४७ । ४२२ । "पवत्तह सक. (प्रवर्तस्व, प्रवृति करो २६४। वस पु.न. (वश? कारण से, जल से, ४४२ । " विवह अक, (विवर्तते, यसता है, गिर पड़ता है. ! " वसिंण पू. न. (वशेष) वश से, कारण से. ३८७. ११८ |" यमि पू.न. (बशे) वश में, काबू में, नियन्त्रण में, वध" वेड्डइ (वर्धते) बढ़ता है, २२० । | वसुधाइ अक. (उद्वाति) सूबता है, ११। " परिअडइ अक. (परिवर्धते) रक्ता है, २२० । "वप्लवाति अक. (उद्वाति) सूखता है, ३१८। " वसुआदि अफ, उदाप्ति) सूखता है, " वरिसइ सक. (वर्षति) बरसता है, २३५। | घसुथा बी. (वसुधा, पृथ्वी, बलद अक. (बलति) लौटता है। १७६ ।' वह" वलाहु अक. (वलामहे । हम सुख पूर्वक रहते हैं; ३८६, , " वह स्त्री. (बहुति, वहते) धारण करता है. ढोता है, ४२६। Yot " वलन्तेहिं व. कृ. (वलन्तः सुख पूर्वक रहते हुओं से, " हिजइ कर्म. प्र. (उह्मते। धारण किया जाता है, ४२२ । ले जाया जाता है, २४५ । चलइ सक. (गृह णाति) ग्रहण करता है, २०६ । । " वुडभइ कर्म. प्र. (उह्मते} धारण किया जाता है, ले बलइ सक. (मारोपयति। ऊपर चढ़ाता है, ४७।। जाया जाता है, २४५।

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