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* प्राकृत व्याकरण
हिन्दी:-भगवान् जिनेन्द्रदेव के सुमीर्घ आँखों वाले सुन्दरतम मुख को देख करके मानों महान् ईया से भर हुआ लवणा-समुद्र बड़वानल नामक अग्नि में प्रवेश करता है। लवण-समुद्र अपनी सौम्यता पर एवं सुन्दरता पर अभिमान करता था, परन्तु जब उसे जिनेन्द्रदेव के मुख कमल को सुन्दरता का अनुभव हुआ तब वह मानों लज्जा-ग्रस्त होकर अग्नि-स्नान कर हा हो; यो प्रतीत होता है। इस छन्द में 'इच' अव्यय के स्थान पर प्रान चौथे शब्द 'नावई' के प्रयोग को समझाया गया है ।। (५) संस्कृत:~चम्पक-कुसुमस्य मध्ये सखि ! भ्रमः प्रविष्टः ॥
शोभते इन्द्रनीलः ननु कनके उपवेशितः ॥ ५ ॥ हिन्दो:--हे सखि ! ( देखो यह ) वरा चम्पक-पुष्प में प्रविष्ट हुमा है; यह इस प्रकार से शोभायमान हो रहा है कि मानों इन्द्रनील नामक मणि सोने में जड़ दी गई है। यहाँ पर पाँचवें शब्द 'जणि' के प्रयोग को प्रदर्शित किया गया है ।।५।।
(६) संस्कृत:-निरुपम-रसं प्रियेण पीरला इव-निरुवमासु पिएं पिएवि जणु प्रियतम पति के द्वारा अद्वितीय रस का मन करके 'इसके समान । यौँ पर 'इव' अर्थ में छहा शब्द 'जणु' लिखा गया है।
लिंगमतन्त्रम् ॥ ४-४४५ ॥ अपभ्रंशे लिङ्गमतन्त्रम् व्यभिचारि प्रायो भवति ॥ गयकुम्भई दारन्तु । अत्र पुलिंगस्य नपुसकत्यम् ।।
अब्भा लग्गा डुङ्गरिहि पहिउ रडन्तउ जाइ ॥
जो एहा गिरि-गिलण-मणु सो किंधणहे पणाह ॥१॥ अत्र अब्मा इति नपुसकस्य पुस्त्वम् ।।
पाइ विलम्गो अन्त्रही सिरु न्हसिउं खन्धस्सु ॥
तो वि कटारइ इत्थडउ बलि किज्जउ कन्तस्सु ॥ २ ॥ भत्र अन्डी इति नपुसकस्य स्त्रीत्वम् ॥
सिरि चरिआ खन्ति, प्फलई पुणु डालई मोडन्ति ।
तो वि मह म सउणाहं अवराहिउ न करन्ति ॥ ३ ॥ अत्र डालई इत्यत्र स्त्रीलिङ्गस्थ नपुसकत्वम् ।।