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* प्राकृत व्याकरण
तृनोणमः । ४-४४३ ।। अपभ्रंश तनः प्रत्ययस्य अधम इत्यादेशा भवति ।। हस्थि मारणउ, लोउ बोल्नमाउ, पडहु वज्जणउ, सुणउ भसणउ ॥
अर्थ:-के स्वभाववाला' अथवा 'वाला' अर्थ में एवं 'कत' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'तृच् - न' प्रत्यय की प्राप्ति होती है संबनुमार इम 'तच' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'अण' ऐसे प्रत्यय की आदेश प्राप्ति का संविधान है । जैसे:-कर्त = करण प्रकरनेवाला अथवा करने के स्वभाव वाला । मायित = मारण=+रनेवाला अथवा मारने के स्वभाव वाला । अज्ञात-अजाण = नहीं जानने वाला । यह 'अण' प्रत्यय धातुओं में जुड़ता है और धातुओं में जुड़ने के पश्चात वे शब्द संझा-स्वरूप वाले बन जाते हैं; एवं उनके रूप आठों विभक्तियों में नियमानुसार चलाये जा सकते हैं । यत्ति में प्रदत्त उदाहरणों का स्पष्टीकरण यों हैं:
(१) हस्ती गारयिता- इथि मारणउ = हाथी मारने के स्वभाव डाला है। (२) लोक कथयिता - लोख बोलण जनमाधारण बोलने के स्वमाय गला है। (३) पटहः वादयिता = पडडु वजाउ = ढील आवाज अथवा प्रतिध्वनि करने के स्वभाव
वाला है। (४) शुनकः भपिता- सुणल भासण : कुत्ता भौंकने के स्वभाव वाला है ॥ ४-४४३ ॥
इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावह-जणि-जणवः ॥४-४४४ ॥ अपभ्रशे इव शब्दस्यार्थे नं, नउ, नाइ, नावर, जमि, जणु इत्येते षट् भवन्ति । नं॥ नं मल्ल- जुज्झ ससि राहु करहिं ।। नउ ॥ रवि-प्रत्थमणि समाउलंग कण्ठि विइएणु न छिएणु ॥
चक्क खण्डु प्रणालिबहे नउ जीबगलु दिण्णु ॥११॥ नाइ॥ बलियावाल- निवडण-मरण धण उद्धन्भुन जाइ ॥
वल्लह-विरह-महादहहो थाह गये सह नाइ ॥२॥ नावइ ।। पेक्खेविणु मुगु जिथा-वाहो दोहर-नयमा सलोणु ॥
नावा गुरु-मच्छर-मरिउ, जलणि पवीसइ लोण ।।३।। जणि ॥ चम्पय-कुसुमहो मन्झि सहि मसलु पइदउ ॥ . सोहइ इन्द नील नणि कणइ घाउ ॥ ४ ॥