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* प्राकृत व्याकरण *
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उपालम्भे भैरव-पच्चार-वेलवाः॥४-१५६ ॥ उपालम्भेरते त्रय श्रादेशा वा भवन्ति ।। झंखइ । पच्चारइ | वेलवइ । उवालम्भइ ॥
अर्थः–'उपालम्भ देना, उलइना देना, उपका देना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सपा + लंम के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से सीन (घातु) पों को आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है :- (१) अंग्ब, (२) पचार, और (३)वेलव । वैकल्पिक पक्ष होने से प्रवालम्भ' भा होता हैउपालम्भते-[१] झंखडा पच्चारइ, [३] पेक्षषह पक्षान्तर में उपालम्भइ = वह उपालम्भ देतो है अथवा वह उलहना देता है ।। ४-१५६ ॥
अवजम्भिो जम्भा॥ ४-१५७ ॥ जम्भेजम्मा इत्यादेशो भवति वेस्तु न भवति ॥ जम्भाइ । जम्भाइ । अवेरिति क्रिम । केलि-पसरा विमम्भइ ।।
__ अर्थः-'जभाइ लेना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जम्भ के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'जम्भा अथवा जम्मः' (बोध का ही आदेश प्रालि होता है । जीस:- जम्भते - जम्भाइ अथवा जम्भाअध %3D वह जम्भाई लेता है।
उपरोक्त संस्कृत-धातु 'जम्म' में यदि 'वि' उपसर्ग जुड़ा हुआ हो तो 'जम्म' के स्थान पर पर 'जम्मा अथवा जम्मान' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति नहीं होगा। ऐसे समय में वि + जम्म' संस्कृत घातु-रूप का प्राकृत रूपान्तर 'वि अम्भ' होगा। ऐसी स्थिति होने के कारण वि उपसर्ग का विधि-निषेध' प्रदर्शित किया गया है । सैसे:-कालि-प्रसरः विजृम्भते काल-पसरी पिअम्भा = कदली-पौधा का फैलाव विकसित होता है ।। ४i १७ ॥
भाराक्रान्ते नमेर्णिसुढः ॥ ४--१५८ ॥ भाराक्रान्ते कर्तरि नमेणिसुढ इत्यादेशों मप्रति ॥ णिसुदइ । पचे । णवइ । भाराक्रान्तों नम्रतीत्यर्थः ॥
अर्थ:-'भार से प्राक्रान्त होकर-दबाव पड़कर नाचे नमना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नम्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'णिसुद्ध' (धातु-रूप) को आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:- भाराकान्तो नमाति = पिमहः = बोझ के कारण से वह नमती है, अथवा मुकता है । कभा कभी इसी अर्थ में 'नम':का 'ण' ऐस प्राकृत-रूपान्तर भी कर लिया जाता है । जैसे:-नमति = णवद ॥४-१५८ ॥ .. .