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प्राकृत व्याकरण * wim m or000000.00000erestrore.ornstrrsoner...
अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति || किलस्य किरः।
किर खाइ न पिअइन विधइ धम्मि न वेचइ रूपडउ ।।
इह किवणु न जाणइ, जइ जमहो खणेण पहुचइ दूअडः ॥१॥ अथवो हवइ ।। अह वइ न सुचंसह एह खोडि ।। प्रायाधिकारात् ।।
जाइज्जइ तर्हि देसडइ लब्भइ पियहो पमाणु ।
जह श्रावह तो आणिइ अह्वा तं जि निवाणु ॥२।। दिवो दिवे । दिवि दिघि गा-हाणु ॥ सहस्य सहुं ॥
जउ पवसन्तें सहुं न गयश्र न मुत्र विश्रोएं तम्सु ।।
लज्जिज्जइ संदेसडा दिन्तेहिं सुहृय-जएस्सु ॥३॥ नहे नाहिं।
एसहे मेह पिबन्ति जलु, एतहे बडवानल आवट्टइ ।।
पेक्यु गही रिम सायरहो एकवि कणिमनाहि श्रोहट्टा ॥४॥ अर्थ:- इस सूत्र में भी अव्ययों का हो वर्णन है। तदनुसार संस्कृत भाषा में उपलब्ध अध्ययों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में जिस रूप में आवेश प्राप्ति होती है; वह स्थिति इस प्रकार से है:--(१) किल=किर = निश्चय ही । (२) अथवा = अहवइ= अथवा विकल्प से इसके बराबर यह । (३) दिवा
= दिवे =दिन-दिवस । (४) सह =सहूं = साथ में। (५) नहि = नाहिं = नहीं । यो अपभ्रश भाषा में 'किल' आदि अध्ययों के स्थान पर 'किर" आदि रूप में आदेश प्राप्ति हाती है । इन अध्ययों का उपयोग वृति में दो गई गाथाओं में किया गया है। उनका अनुवाद कम से इस प्रकार हैं:
संस्कृत:--किल न खादति, न पिवति न विद्रवति, धर्मे न व्ययति रूपकम् ।।
इह कृपणो न जानाति, यथा यमस्य चणेन प्रभवति दूतः ।। हिन्दी:-निश्चय ही कंजूस न (अच्छा) खाता है और न (अच्छा) पोता है। न सदुपयोग ही करता है और न धम-कार्यों में हो अपने धन को व्यय करता है। किन्तु कृपण इस बात को नहीं जानता है कि अचानक ही यमराज का दूत आकर क्षण भर में ही उसको उठा लेगा। उस पर मत्यु का प्रभाव डाल देगा । इस गाथा में 'किल' अध्यय के स्थान पर आदेश प्राप्त किर' अव्यय का उपयोग समझाया गया है॥१॥