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* प्राकृत व्याकरण * 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000.
(१) एवंएम्बइस प्रकार से अथवा इस तरह से । (२) परंपर-छिन्तु-परन्तु । (३) समसमाणु-साथ । (४) ध्र वंध्र -निश्चय ही । (५) मा=मंमत, नहीं । (६) मनाफ-मणाउं = थोड़ा सा भी-अल्प मी। इन्हीं अन्ययों का प्रयोग कम से गाथाओं में समझाया गया है। तदनुसार इन गाथाओं का संस्कृत में तथा हिन्दी में भाषान्तर कम से इस प्रकार से है:संस्कृतः-प्रिय संगमे कथं निद्रा ? प्रियस्य परोक्षे कथम् ?
___ मया द्वे अपि विनाशिते. निद्रा नैवं न तथा ।। हिन्दी:-प्रियतम पतिदेव के सम्मेलन होने पर ( सुख के कारण से ) निद्रा कैसे आ सकती है ? और प्रियतम पति वेव के वियोग में भी ( वियोग-जमित-दुःख होने के कारण से भी ) निद्रा कैसे पा सकती है ? मेरो निद्रा दोनों ही प्रकार से नष्ट हो गई है। न इस प्रकार से और न उस प्रकार से। इस गाथा में संस्कृत अव्यय एवं' के स्थान पर 'एम्ब' का प्रयोग समझाया गया है । 'कथं के स्थान पर 'केम्व' और 'तथा' के स्थान पर तेम्ब' की स्थिति की भी कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिए ॥१॥
(२) गुणैः न संपत्त कोतिः परं गुणहि न संपइ कित्ति पर गुणों से लक्ष्मी नहीं (प्रास होती है) किन्तु कीर्ति ( ही प्राप्त होती है)। इस चरण में 'परं' अध्यय के स्थान पर प्रादेश प्राप्त अम्बय रूप 'पर' का उपयोग किया गया है। संस्कृतः-कान्तः यत् सिंहेन उपमीयते, तन्मम खण्डित: मानः ।।
सिंह: नीरक्षकान् गजान इन्ति प्रिय: पदरक्ष: समम् ।। हिन्दी:-यदि मेरे पति की तुलना सिंह से की जाती है तो इससे मेरा मान-मेरा गौरव-खण्डित हो जाता है। क्योंकि सिंह तो ऐसे हाथियों को मारता है; जिनका कि कोई रक्षक नहीं है; (अर्थात् रक्षकहीन को मारने में कोई वीरता नहीं है); जबकि मेरा प्रियतम पतिदेव तो रक्षा करने वाले सैनिकों के साथ शत्रु-राजा को मारता है । यों तुलना में मेरा पति सिंह से भी बढ़ चढ़ कर है । इस गाथा में 'समं' अव्यय के स्थान पर समाणु' भव्यय का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है | संस्कृतः-~-चञ्चलं जीवितं, ध्रुवं मरणं, प्रिय ! रुष्यते कथं १
भविष्यन्ति दिवसा रोषयुक्ताः (रूसणा) दिव्यानि वर्ष-शतानि ॥३॥ हिन्दी:-जीवन चंचल है अर्थात् किमी मी क्षण में नष्ट हो सकता है और मृत्यु ध्रव याने निश्चित है तो ऐसी स्थिति में है प्रियतम पतिदेव ! रोष याने क्रोध क्यों किया जाय ? यदि रोष युक्त दिन व्यतीत होंगे तो हमारा प्रत्येक दिन 'देवलोक में गिने जाने वाले सौ सौ वर्षों के समान लभ्यो और नहीं काटा जा सकने जैसा प्रतीत होगा । इस गाथा में 'ध्रुव' के स्थान पर आदेश प्राप्त रूप 'भ्र वु' का प्रयोग किया गया है ॥३॥