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* प्राकृत व्याकरण* -000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
संस्कृत-(१) एक कदापि नागच्छसि, अन्यत् शीघ्र यासि ॥
___ मया मित्र प्रमाणितः, स्वया यादृशः (न्वं यथा) खलः न हि ।।१।। हिन्दी-तुम कभी भी एक बार भो मेरे पास नहीं पाते हो और दूमी जगह पर तुम शीवना पूर्वक जाते हो; इससे हे मित्र ! मैंने समझ लिया है कि तुम्हारे समान दुष्ट कोई नहीं है। इस गाथा में " शोनं " के स्थान पर " हिल्लर" पद का प्रयोग समझाया है ।।१।। संस्कृत- (२) यथा सत्पुरुषाः तथा कलहाः, यथा नद्यः तथा वलनानि ।।
यथा पर्वता: तथा कोटरागि, हृदय । खिद्यसे किम् ? ।। २ ।। हिन्दी--जितने सज्जन पुरुष होते हैं. उनने ही मााड़े भी होते हैं। जितनो नदियां होनी है, उतनेही प्रवाह भी होते हैं। जिसने पहाड़ होते हैं उतना हा गुफाएँ भा छाता है: इमलिये ई हाय !: तू खिन्न क्यों होता है ? इस विश्व में अनुकूलता और प्रतिकूनत्ताएँ तो अनादि-अनन्त काल में उत्पन्न होतो ही आई है। इस छंद में " कलह " के स्थान पर “ घयल ' पद प्रयुक्त हुआ है ।। २ ।। संस्कृत –(३) ये मुक्त्वा रत्न-निधि, आत्मानं तटे क्षियन्ति ।।
तेषां शंखानां संसर्गः केवल फूक्रियमाणा: भ्रमन्ति ॥ ३ ॥ हिन्दी- जो शंख रत्नों के भंडार रूप ममुद्र को छोड़ करके अपने आपको समुद्र के किनारे पर फेंक देते हैं; सन शंखों की स्थिति अस्पृश्य जैसा हो जाती है और ये सिर्फ दूमरों की फंक से श्राबाज करते हुए अनिश्चित स्थानों पर भटकते रहते हैं। इस गाथा में “ अस्पृश्य संसर्ग " के स्थान पर "विट्टालु" पद का प्रयाग हुआ है ॥ ३ ॥ संस्कृत (४)---दिवस अर्जितं खाद मूख ! संचिनु मा एकमपि द्रम्मम् ।।
किमपि भयं तत् पतति, येन समाप्यते जन्म ॥ ४ ॥
हिन्दी-अरे भूख ! जो कुछ भी प्रति दिन तेरे से कमाया जाता है उसका खन, उसका उपभोग कर और एक पैसे का भी संचय मत कर; क्योंकि अचानक हो कुछ भो भय ( मृत्यु आदि) पा सकनी है । इस छन्द में " भयं " पद का जगह पर श्रनिश भाषा में "द्रव ककउ " पद का प्रयोग किया गया है ।। ४ ॥
संस्कृत (५) स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं - फोडेन्ति जे हिअड अप्पणउ =
जा ( दोमों स्तन ) अपने खुद के हृदय को हो ) फोड़ते हैं–विस्फोटित होकर उभर आते हैं। इस गाथा-धरण में संस्कृत-पद " अात्मीय " के बदले में "अमर" पद प्रदान किया गया है।