Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 574
________________ [५६४ ] * प्राकृत व्याकरण 2 morrowo.00000000000000000000Poemorosorrorrormeroinor.mom mon संस्कृत (१३)-गतःस कसरी, पिवत जलं निश्चिन्त हरिणाः ! ॥ यस्य संबन्धिना हुंकारेण, मुखेभ्यः पतन्ति तृणानि ॥१शा हिन्दी:-अरे हिरणों ! वह मिंड ( तो अब ) चला गया है। ( इसलिये ) तुम निश्चिन्त हाकर जल को पीओ । जिम (मिह से ) सम्बन्ध रखने वाली ( भयंकर ) गना से-हुँकार से-( खाने के लिय मह में ग्रहण किये हुए ) घास के तिनक (मी) मुनों से गिर जाते हैं; ( ऐसी हुंकार वाला सिंह को अब चला गया है ) । इस गाथा में " मम्बन्धिना " पद के स्थान पर अपभ्रश भाषा में "केर - करर" पद की अनुरूपता समझाई है ।। ५५ || संस्कृत:-अथ भग्ना अस्मदोया = अह भग्गा अम्दं तणा = यदि हमारे से सम्बन्ध रखने वाले भाग गये हैं अथवा मर गये हैं । इस गाथा-पाद में " संबंध " वाचक अर्थ में "नणा" प३ का प्रयोग किया गया है। यों अनभ्रंश भाषा में " संबंध-वाचक" अथ में " कर और तण " दोनों प्रकार के शब्दों का पवहार देखा जाता है। संस्कृत (२०)-स्वस्थावस्थानामालपनं सर्वोऽपि लोक : करोति || आर्तानां मा भैषीः इति यः सुजनः स ददाति ॥१६॥ हिन्दी:-आनन्द पूर्वक स्वरध अवस्था में रहे इए मनुष्यों के माथ तो प्रत्येक आदमो बातचीत करता हो है (और ऐसी ही रोति इस स्वार्थमय संमार को है ); परन्तु दुखियों को जो ऐसी बात कहता है कि “ तुम मत डरो !; वही सज्जन है। " अभय वचन " कहने वाला पुरुष ही इस लोक में सम्जन कहलाता है । इस गाथा में “ मा भैषोः" के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में " ममीसडी" को आदेशप्राप्ति का विधान समझाया गया है ॥ १६ ॥ संस्कृत (२१): यदि रज्यसे यद् यत्-दृष्टं तस्मिन् हृदय ! मुग्ध स्वभाव ! लोहेन स्फुटता यथा धनः ( = तापः ) सहिष्यत तावत् ।। १७ ॥ हिन्दी-अरे मूर्ख-स्वभाव वाले हृदय ! यदि तू जिस जिस को देवता है, उम उममें आपत्ति अथवा मोह करने लग जाता है तो तुझे उसी प्रकार का और चाट महन करनी पड़ेगी, जिस प्रकार कि वरार पढे हुए-लोहे की " अग्नि का तार और घन को चोटें " सहन करनी पनुनी हैं। इन गाथा में संस्कृत-वाक्यांश-- " यद्यद्-दष्टं, तत्-तन्" के स्थान पर अपभ्रश-भाषा में "जाइट्रिश्रा =जाइट्टिए" ऐसे पद--रूप की श्रावेश प्राप्ति का उल्लेख किया गया है ।। १ ।। इस सूत्र में इक्कीस देशज शब्दों का प्रयोग समझाया गया है। इनमें पतरह शादों का उल्लेख तो गाथाओं द्वारा किया गया है और शेष चार शब्दों का सा -पों द्वाग प्रापित है। ॥४-४२

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