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* प्राकृत व्याकरण 23
'इकार' में बदल जाता है । जैसे:- धूलिः =धूलि+ उड-धुलड; धूल + आ = धूलहिमा । यहाँ पर 'धुलर' शब्द में अन्त्य 'भकार' को 'या' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'इकार' वर्ण की प्राप्ति हो गई है। पूरे गाथा-चरण के लिये सूत्र-संख्या ४-४३२ देखें।
प्रश्न:-वृत्ति में ऐसा क्यों लिखा गया है कि-स्त्रीलिंग वाले शब्दों में इस 'कार' को 'या' प्रत्यय को प्रानि के पूर्व 'इकार' वर्ण की प्राप्ति होती है ?
उत्तर-यदि स्त्रीलिंगवाले शब्दों के अतिरिक्त पुल्लिंग अथवा नपंसकलिंग वाले शब्द होंगे तो उनमें अवस्थित अन्त्य 'श्रकार को 'इकार' की प्राप्ति नहीं होगी।
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जैसे:-वनिः कर्णे प्रविष्टः मुणि कन्नहर पट्ट-पानाज कान में प्रविष्ट हुई। यहाँ पर 'कमाई' शब्द में अन्त्य 'अकार' को इकार की प्राप्ति नहीं हुई है ॥ ४-४३३ ।।
युष्मदादेरीयस्य डारः॥४-४३४ ॥
अपन'शे युष्मदादिभ्यः परस्य ईय प्रत्ययस्य डार इत्यादेशो भवति ।।
संदेसें काई तुहारण, जं साहो न मिलिज्जइ ।।
सुइणन्तरि पिएं पाणिएण पित्र ! पित्रास किं छिजइ । १॥ दिक्खि अम्हारा कन्तु । पहिणि महारा कन्तु ।।
अर्थ:-संस्कृत भाषा में 'वाला' अर्थ में ईय' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है; यह 'ईय' प्रत्यय 'हम, तुम, मैं, तू, वह और वे इन पुरुष-बोषक सर्वनामों के साथ में जुड़ा करता है और ऐसा होने पर 'हमास, तुम्हारा, मेग. तेरा, उसका और उनका' ऐमा अर्थ-बोध प्रतिध्वनित होता है। यों इस अर्थ में अपभ्रंश भाषा में इस ईय' प्रत्यय के स्थान पर उपरोक्त पुरुष-चोचक सर्वनामों के साथ में 'द्वार' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है । प्राप्त प्रत्यय 'डार' में अवस्थित श्रादि डकार' वर्ण इत्संज्ञक होने से उन पुरुष-योधक सर्वनामों में स्थित अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही शेष रहे हुए उन इलन्त सर्वनामों में 'डार-धार' प्रत्यय की संयोजना हुत्रा करता है। जैसे:-अस्मदोयम्अम्हारउँ हमारा । युष्मदीयम् - तुम्हार = तुम्हारा । स्वदीयम् - तुहारउँ = तेरा। मदीयम् = अम्हारा = मेरा। गाथा का अनुदान यों है:संस्कृतः-संदेशेन किं युष्मदीयेन, यत्संगाय न मिल्यते ॥
स्वप्नान्तरे पीतेन पानीयेन, प्रिय ! पिपासा किं लियते ॥१॥