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* प्राकृत व्याकरण *
संस्कृत: - खाद्यते न कसरत्क शब्दं कृत्वा, पीयते न घुट् शब्दं कृत्वा ॥ एवमपि भवति सुखामिका, प्रिये दृष्टे नयनाभ्याम् ||२||
हिन्दी:- प्रियतम को दोनों आँखों से देखने पर भी ( पूर्ण तृप्ति का अनुभव नहीं होता है क्योंकि वह तृप्ति प्राप्त करने के लिये अन्य खाद्य पदार्थों के समान ) न तो 'कसरक - कसरक' शब्द करके खाया हा जा सकता है और न 'घुट-घुट' शब्द करके पीना हीं जा सकता है। फिर भी परम आनन्द और अत्यधिक सुख का अनुभव किया जा सकता है ग
'वेष्टानुकरण के उदाहरण गाथा-संख्या तृतीय और चतुर्थ में दिये गये हैं जिनका संस्कृत-अनु वाद सहित हिन्दी भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:
संस्कृत:- श्रद्यापि नाथ: ममैव गृहे सिद्धार्थान् वन्दते ॥
तावदेव विर: गवाक्षेषु मर्कट- चेष्टां ददाति ॥ ३ ॥
हिन्दी: - 1 मेरे प्राण नाथ त्रियनम विदेश जाने को तैयारी कर रहे हैं और अभी वे स्वामीनाथ- मेरे घर में ही (मंगलार्थ ) सिद्ध-प्रभु का वंदना कर रहे हैं फिर भी विरह ( जनित दुःख की हुँकार ) ( मन रूपी ) खिड़कियों में बन्दर - चेष्टाओं को (घुश्व घुग्य जैसी पोड़ा-सूचक ध्वनियों को ) प्रदर्शित कर रही है || ३ || 'आदि' शब्द के पहण करने से अन्य चेष्टा-सूचक शब्दोंका संग्रहण भी समझ लेना चाहिये जैसा कि गाथा-संख्या चतुर्थ में ' उद-वईम' शब्द का संग्रह किया हुआ है । उह गाथा का अनुवाद यों है.
संस्कृत: - शिरसि जरा खण्डिता लोम पुटी; गले मणयः न विंशतिः || तथापि गोष्ठस्थाः कारिताः सुग्धया उत्थानोपवेशनम् ॥ ४ ॥
हिन्दी: - इ + सुन्दरी के सिर पर जोर्ण-शीर्ण- ( फटो-टूटी ) कंबली मात्र पड़ी हुई है और गले में मुश्किल से बीस कौंच की मणिया वाली कंठो होगी; फिर भी (देखो ! इसके आकर्षक सौन्दर्य के कारण से ) इस मुग्धा द्वारा ( आकर्षित होकर ) कमरे में ठहरे हुए इन पुरुषों ने ( कितनी बार ) उठ-बैठ ( इस मुरबा को देखने के लिये ) को हैं ? इस गाथा में चेष्टा- अनुकरण' के अर्थ में ' उट्ठ-बईस ' जैसे देशज शब्द का प्रयोग किया गया है । यो अपाश-भाषा में 'ध्वनि के अनुकरण करने में और चेष्टा | करने में ' अनेक देशज शब्दों का व्यवहार किया जाता हुआ देखा जाता है ।। ४-४२३ ।।
अनुकरण
घइमादयो ऽनर्थकाः ॥ ४-४२४ ॥
अपभ्रंशे घइमित्यादयो निपाता अनर्थकाः प्रयुज्यन्ते ॥