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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[४८३ ] ++++++++++++++++++++++++++++++++oooooooov•••••••••••••••• • इसो विभक्ति में 'लोप' रूप अवस्था की प्राप्ति भी हो सकती है। इनके उदाहरण गाथानुसार कम से इस प्रकार हैं:-(१) परस्सु = परस्य = दूसरों के; (२) तमु - तस्य = उसके; (३) दुल्लहहोम दुर्लभस्य = दुलभ के और (४) मुअणस्मु-सुजनस्य- सज्जन पुरुष के ।। इन तदाहरणों में 'मु, हो और रसु' प्रत्यय वाले पदों का सद्भाव देखा जा सकता है । 'लु' प्रत्यय होने पर 'जण अथवा जणा मनुष्य का' ऐसा रूप होगा। उपरोक्त गाथा का संस्कृत-अनुवाद सहित हिन्दी अनुवाद कम से इस प्रकार है:संस्कृता-य: गुणान् गोषयति अात्मीयान् प्रकटान करोति परस्य ॥
तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य पलिं करोमि सुजनस्य ॥१॥ हिन्दी:-मैं अपनी श्रद्धांजलि रूप सद्भावना इस कलियुग में दुर्लभ उस सजन और भद्र पुरुष के लिये प्रस्तुत करता हूँ जो कि अपने स्वयं के गुणों को ढाकता है। अपने गुणों की कीर्ति नहीं करता है और दूसरों के गुणों को प्रकट करता है ।। ४-६३८ ॥
श्रामो हं ॥४-३३६ ॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्यामोहमित्यादेशो भवति ॥ सणहं सइज्जी भंगि न वि ते अवड-डि वसन्ति ।। अब जणु लम्गि बि उत्तरइ अह सह सई मज्जन्ति ॥१॥
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के षष्ठी बहुवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर 'ह' प्रत्यय को आवेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ४-३४५ से 'लुक् = ' रूप से भी षष्ठी विभक्ति में प्राप्ति हो सकती है। उदाहरण हैंप से गाया में संग्रहित पद इस प्रकार हैं:(१) तणह = तृणानाम् = तिनकों के | गाथा का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृतः-तृणानाम् तृतीया भङ गी नापि,( = नैव ), तानि अवट तटे वसन्ति ।।
अथ जनः लगित्या उतरति अथ सह स्वयं मज्जन्ति ।। हिन्दी:-जी पास नदी-नाला यादि के किनारे पर उगता है; उसकी दो ही अवस्थाएं होती है; तीसरी अवस्था का अभाव है, या तो लोग उनको पकड़ करकं उतरते हैं, अथवा उनके साथ स्वयं हूब जाता है॥४-३३६ ।।
हुचेदुद्वयाम् ॥ ४-३४० ॥ अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्यामो हुँ है चादेशौ भवतः ॥ दइचु घडावइ वणि तरूई सउणिई पक्क फलाई ।।