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* प्राकृत व्याकरण 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में सर्व = सम्छ' अदि अकारान्त सर्वनाम वाचक शब्दों के सामी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जि' के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय की श्रादेश प्राप्ति होती है । पृचि में दो गई' गाथाओं में आये हुए निम्नोक्त पद सप्तमो विभक्ति के एकवचन में 'हि' प्रत्यय के साथ क्रम से इप्स प्रकार है:
(१) जहिं = यस्मिन् (अथवा यत्र ) = जिसमें ( अथवा जहाँ पर ); (३) तहि = स्मि ( अथवा तत्र ) = उसमें ( अथवा वहाँ पर);
(३) एक्काहिं = एकस्मिन् = एक में; (४) अन्नहिं - छान्यस्मिन् = दुमरे में; (५) कर्हिकस्मिन् = कहाँ पर । तीनों गाथाओं का संस्कृत और हिन्दो अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:संस्कृतः—यस्मिन् कल्प्यते 'शरेण शरः, छिद्यते खड्गेन खड्गः ॥
तस्मिन तादृशे पेट घटा निवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम् ॥ १॥ हिन्दी-जहाँ पर अर्थात जिस युद्ध में बाण से बाण काटा जाता है अथवा काटा जा रहा है और जहाँ पर तलवार से तलवार काटो जा रही है। ऐसे भयकर युद्ध में रणवीर रूपी बादलों के समूह में (मेरा बहादुर) पति (अन्च वोरों को) (युद्ध कला का प्रादर्श) मागे बतलाता है (अथवा बतला रहा है)॥१॥ संस्कृत:-एकस्मिन् अक्षिण श्रावणः, अन्यस्मिन् भाद्रपदः ।
माधवः (अथवा माध:) महीतलत्रस्तर गण्ड स्थले शरत् ।। अंगेषु ग्रीष्मः सुखासिका तिलवने मार्गशीर्षः ।
तस्याः मुग्धायाः मुख पंकजे श्राचासित: शिशरः ।। २ ॥ हिन्दी:- काव्य रूप श्लोक में ऐसी नायिका की स्थिति का वर्णन किया गया है; जो कि अपने पति से दूर स्थल पर अवस्थित है। पत्ति-वियोग से इस नायिका के आँखों में अश्रु प्रवाह प्रवाहित होता रहता है, इससे ऐसा मालूम होता है कि मानों इसकी एक श्रॉब में श्रावण मास का निवास स्थान है और दूसरी में भाद्रपद मास है । ( पत्र और पुष्पों से निर्मित ) उसका भूमि तल पर बिछाया हुआ बिस्तरा बसंत ऋतु के समान अथवा माघ मास के समान प्रतीत होता है। उसके गालों पर शरत् ऋतु को थाभा दिखाई देती है और अङ्ग-बङ्ग पर ( वियोग-जनित-उष्णता के कारण से) ग्रीष्म ऋतु का श्राभोस प्रतीत हो रहा है । ( जब वह शांति के लिये ) तिल उगे हुए खेतों में बैठती है तो ऐसा मालूम होता है कि मानों यहाँ पर मार्गशीर्ष मास का समय चल रहा है। ऐसी उस मुग्धा नायिका के मुख. कमल का स्थिति है कि मानों अमक मुख-कमल पर शिशिर ऋतु का निवास स्थान है ।। २॥ संस्कृत:-हृदय ! स्फुट तटिति (शब्द) कृत्वा काल क्षेपेण किम् ॥
पश्यामि हत विधिः क स्थापयति त्वया विना दु:ख शतानि ।। ३ ।।