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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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हिन्दीः――हे हृदय ! ‘तड़ाक ऐसा शब्द करके अथवा करते हुए फटजा- विदीर्ण होजा; ऐसा करने में विलम्ब करने से क्या (लाभ) है ? क्योंकि मैं देखता हूँ कि यह दुर्भाग्य तेरे सिवाय अन्यत्र इन सैंकड़ों दुःखों को कहाँ पर स्थापित करेगा ? अर्थात् इन श्रापति सैंकड़ों दुःखों को झेलने की अपेक्षा से तो मृत्यु का वरण करना ही श्रेष्ठ है ।। ४-३५७ ।।
यत्तत्किभ्यो हो ढासु
र्न
वा ।। ४-३५८ ॥
अपभ्रंशे यत्तत् किम् इत्येतेभ्यो कारान्तेभ्यः परस्य उसी डासु इत्यादेशो वा भवति ॥ कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छइ रूसह जासु ॥ सिथिहित्थिहि वि ठाउ वि फेडइ तासु ॥१॥ जीव कासु न वलहजं धरणु पुणु कासु न हट्टु ॥ दो विश्रवसर - निवडियाई' तिरा-सम गगह विसि ॥२॥
संस्कृत:
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'यजल और किए' के अकारान्त पुल्लिंग श्रवस्था में षष्ठी विभक्त के एक वचन में संस्कृताय प्रत्यय "इस " के स्थान पर 'डासु = श्रासु'' प्रत्यय की विकल्प से प्रदेश प्राप्ति होती है। 'डासु" रूप लिखने का तात्पर्य यह है कि "यतु =ज", "तसूत" और "किम् = क" में स्थित अन्त्य स्वर "कार" का "डासु = आसु' प्रत्यय जोड़ने पर लोप हो जाता है । यो "डासु" में स्थित "डकार" इत्संज्ञक है। गाथाओं में इन सर्वनामों के जो उदाहरण दिये गये हैं; वे कम से इस प्रकार है: -- (१) जालु यस्य = जिसका; (२) नासु तस्य उसका और (३, कासु = कस्य = किसका || गाथाओं का अनुवाद निम्न प्रकार से है:
:- कान्तः श्रस्मदीयः इला सखिके 1 वियेन रुष्यति यस्य || अस्त्र शस्त्रः हस्तैरषि स्थान मपि स्फोटयति तस्य ॥१॥
हिन्दी :- सखि ! हमारा कान्त - प्रियपति - जिस पर निश्चय से रूठ जाता है - श्रथवा क्रोध करता है; तो उसके स्थान को मी निश्चय ही अस्त्रों से, शस्त्रों से और ( यहाँ तक कि ) हाथों से भी नष्ट कर देता है ॥१॥
संकृस्तः — जीवितं कस्य न वल्लभकं वनं पुनः कस्य नेष्टम् ॥ अपि अवसर निपतिते, तृणसमे गणयति विशिष्टः | २||
हिन्दी : - किसको (अपना) जीवन प्यारा नहीं हैं ? और कौन ऐसा है जिसको कि धन (प्राप्ति) आकांक्षा नहीं है ? अथवा धन प्यारा नहीं है ? किन्तु महापुरुष कठिनाइयों के क्षणों में भी अथवा