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* प्राकृत व्याकरण *
रखा जाता है तो यह सड़ जाता है और यदि इसको जला दिया जाता है तो केवल राख ही प्राप्त होती ६ ॥ ४- ३६५ ।।
सर्वस्य साहो का || ४-३६६ ॥
अपभ्रंशे सर्व - शब्दस्य साह इत्यादेशो वा भवति ॥
साहू वि लोड़ तडप्फडड़ वह्नत्तणही तणेण ॥
चप्पर परिपावित्र्य हथि मोक लडेग ॥ १ ॥ पक्षे | सव्यु वि ॥
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अर्थ:- अपभ्रंश भाषा में 'सर्व' सर्वनाम के स्थान पर 'मन्त्र' अङ्गरूप की प्राप्ति होती है और विकल्प से 'सर्व' के स्थान पर 'साह' श्रङ्गरूप की प्राप्ति भी देखी जाती है । जैसे:- सर्वः ==सम्बु और साहु सच | यो अन्य विभक्तियों में भो 'शाहू' के रूप समझ लेना चाहिये | गाथा का अनुवाद यों है: संस्कृतः --- पुर्वोऽपि लोकःप्रस्पन्दते ( तडफडइ) महत्त्वस्य कृते || पुनः प्राप्यते हस्तेन मु ंन ॥ १ ॥
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मह
हिन्दी:- ( विश्व में रहे हुए मभो मनुष्य बड़प्पन प्राप्त करने के लिये तड़फड़ाते रहते हैव्याकुलता मय भावनाएँ रखते हैं। परन्तु बड़ तभी प्राप्त किया जा सकता है; जबकि मुक्त-हस्त होकर दान दिया जाता है । अर्थात त्याग से ही दान से ही बड़प्पन की भारित की जा सकती है ।। ४-३६६ ।।
किम: काई - कारण वा ॥ ४-३६७ ॥
अपभ्रंशे किमः स्थाने काई कवण इत्यादेशो वा भवतः ॥ जह न सु वह दूइ घरू काई अहो मुहुं तुज्झु " यजु खंडड़ तर सहिए सो पिउ होइ न मज्भु ॥ १ ॥
काइ न दूरे देवख ॥ (३४६ - १) ।
पक्षे ।
फोडेन्ति जे हितं अाउं ताई पराई कब घण || रक्खेज्जद्दु लोहो अपण बालहे जाया विसमं थय ॥२॥ - सुपुरिस कंतुहे अरहरहिं भण" कज्जें कवणे ॥ जिव जिव बहुत्त लहईि तिवँ तिव नवद्दि सिरेण ॥ ३ ॥