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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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हि-स्वयोरिदुदेत् ॥ ४-३८७ ।। पञ्चम्यां हि-स्वयोरयभ्रंशे इ, उ, ए इत्येते त्रय आदेशा वा भवन्ति ।। इत् । .
कुञ्जर ! सुमरि म सलउ सरला मास म मेलि ॥
काल जि पाविय विहि-त्रसिण तं चरि भाणु म मेलि । १॥ उत्। ___ भमरा एस्थु वि लिम्बडइ के वि दियहडा विलम्बु ।।
घण-पत्तलु छाया बहुलु फुल्लइ जाम कयम्यु ॥ २ ॥ एत् ।
प्रिय एम्बहिं करे संन्लु करि बाहि तुहुं करवालु ॥
जं कावालिय पप्पुडा लंहिं अभागु कयालु ॥३॥ पक्षे । सुमरहि । इत्यादि।
अर्थ:-अपनश भाषा में आशाथं वाचक लकार के मध्यम पुरुष के एकच घन में प्राकून-भाषा में इसी अर्थ में प्राप्तध्य प्रत्यय 'हि और सु' की अपेक्षा से तीन प्रत्यय 'इ, उ, ए' को प्रानि विशेष रूप से और आदेश रूप से होती है। यह स्थिति वैकल्पिक है। इसलिये इन तीन पादेश प्राप्त प्रत्ययों 'इ. छ, ए, के अतिरिक्त हि और सु' प्रत्ययों की प्राप्ति भी होता है। जैसे:--स्मर मुमरियाद कर । (२) मुश्चमेरिल = छोड़ दे। (३) घरपरि - । पक्षान्तर में 'सुमरसु और सुमरहि, मेरुतसु, मेल्लाह, घरसु चरहि' इत्यादि रूपों को प्राप्ति भी होगी; ये उदहरण 'इ' प्रत्यय से सम्बन्धित है । '' का उदाहरण यों हे:--विलम्बस्व = विलम्बु-प्रतीक्षा कर । पक्षान्तर में 'घिलम्बसु और विलम्बहि' रूपों की प्राति मा होगी। 'ए' का सदाहरण:-गुरू = करे - तू कर । पक्षान्तर में 'करसु और करहि रूप भी होंगे। तीनों गाथाओं का अनुवाद क्रमशः यों है:संस्कृत:-कुजर ! स्मर मा सल्लकीः, सरलान् श्वासान मा मुश्च ।।
कवला: ये प्राप्ताः विधिवशेन, तश्चिर, मान मा मुञ्च ॥ १ ॥ हिन्दी:-हे गजराज ! हे हस्ति-रस्न !'सरुल की' नामक स्वादिष्ट पौधों को मत याद कर और (उनके लिये ) गहरे श्वास मत छोड़ । भाग्य के कारण से जो पौधे (खाय रूप से ) TR हुए हैं. उन्हीं को खा और अपने सन्मान को-प्रारम-गौरव को-मत छोड़ ।। १ ।। संस्कृत:-भ्रमर ! अत्रापि निम्बके कति ( चित् ) दिवसान् विलम्बस्त्र ।।
धनपत्रवान् छाया बहुतो फुनति यावत् कदम्बः ॥ २ ॥