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* प्राकृत व्याकरण
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अर्थः-अपभ्रंश भाषा में संस्कृत की धातु 'भु-भष' के स्थान पर 'समर्थ हो सकने के अर्थ में अर्थात् 'पहुँच सकने' के अर्थ में 'हुच्च' रूप की मादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-प्रभवति = पहुरुवद - वह समर्थ होता है-वह पहुँच सकता है । (२) प्रभवन्ति-पहुचहि समर्थ होते हैं--वे पहुंच सकते हैं। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृता-अतितुङ्गत्वं यत्स्तनयोः सच्छेदकः न खलु लामाः ।
सखि ! यदि कथमपि त्रुटि वशेन अधरे प्रभवति नाथः ।। १ ।। हिन्दी:-हे सखि ! दोनों स्तनों की अति ऊँचाई हानि रूप ही है न कि लाभ रूप है। क्योंकि मेरे प्रियतम अधरों तक (होठों का अमृत-पान करने के लिये ) कठिनाई के साथ और देरी के साथ ही पहुँच सकने में समर्थ होते हैं। ४-३६० ॥
बगो ब्रशे वा ॥ ४-३६१॥ अपभ्रंशे भूगो धातो ब्रूव इत्यादेशों वा भवति ।। वह सुहासिउ कि पि ।। पक्षे ।
इत्तउं नोप्पिणु मणि, हिउ पुणु दूमासणु नोप्पि ।।
तोहउं जाणउं पहो हरि जङ् महु अग्गइ ब्रोप्पि ।। १ ।। अर्थ:--संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'बोलना' अर्थक धातु ' के स्थान पर अपभ्रश भाषा में विकल्प से 'बेव' ऐसे धातु रूप की भावेश प्राप्ति होती है वैकल्मिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'बू रूप को भी प्राप्ति होगी । (१)जैसे:-ते- अबइ और भूइ-बह बोलता है। (२) घृत सुभाषितं किंचित-बह सुहासिन किंपि= कुछ भी सुन्दर अथवा अच्छा भाषण बोलो । गाथाका अनुवाद इस प्रकार से है:संस्कृत:-इयत् उक्त्वा शकुनिः स्थितः, पुन शासन उक्त्वा ॥
तदा अहं जानामि, एष हरिः यदि ममाग्रतः उक्त्वा ॥ १॥ हिनी:-दुर्योधन कहता है कि:-शकुनि इतना कहकर रूक गया है, ठहर गया है। पुनः दुशासन (भी) बोल करके ( रूक गया है। तब मैंने समझा अथवा समझता हूँ कि यह श्रीकृष्ण है। जोकि मेरे सामने बोल फरके खड़े हैं । यो इस गाथा में 'ब्र' धातु के अपभ्रश में तीन विभिन्न क्रियापद-रूप बतलाये गये हैं ॥ ४-३६१ ।।
ब्रजे वुः ॥४-३६९ ॥ अपभ्रंशे ब्रजते (तो वुम इत्यादेशी भवति ॥ घुइ । नेप्पि ! प्पिणु ।