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[ ५३८ ]
* प्राकृत व्याकरण *
अतां डइसः ॥४-४०३ ॥
अपभ्रंशे पाहगादीनामदन्तानां यादृश-तादृश-कीदृशेदशानां दादेवयवस्य उित् अइम इत्यादेशो भवति ॥ जइसो । तइसो । कइसो । अइसी ।।
अर्थ:--संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'याहक. तारक, कीदृक् और ईहक' शब्दों में यदि 'अ ' प्र यय की प्रामि होकर जब ये शठन कम से यादृश, ताश, कीडश और ईदृश' रूप में परिणत हो जाते हैं, तब अपभ्रंश-भाषान्तर में इन शब्दों के अन्त्य श्रदयव रूप दृश' के स्थान पर खिन' पूर्वक 'अइस' अवयव की अादेश प्रामि हो जाती है। डिल-पुर्व क' कहने का तात्पर्य यह है कि इन शब्दों के अन्य अवयव 'दश' के लोप हो जाने के पश्चात शेष रहे हुए शब्दांश 'या, ता. की और इ' भाग में अवस्थित अन्त्य करना को लेकर आता है और पश्चान् हलन्त रूप से रहे शब्दाश में ही 'आइस' आदेश प्राप्ति की संधि हो जाती है। जैसेः-न्यारशः = जइसो - जिसके समान । तादृशः= तइस उप्तके समान । कीदृशः - कइमो= किसके समान और ईशः- अइसा-इसके समान | ये विशेषण सारूप वाले हैं, इसलिये संज्ञाओं के समान हो इनके विभक्ति-वाचक रूप भी बनते हैं ॥ ४-४०३ ॥
यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेवत्त ॥ ४-४०४ ॥ अपभ्रंशे यत्र-तत्र-शब्दयोस्त्रस्य एत्थु अत्तु इत्येतो डिती भवतः ।।
जइ सो धडदि प्रयावदी केत्थु थि लेपिणु सिक्खु ।।
जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो ताहि सारिकबु ॥ १ ॥ जत्तु ठिदो। तत्तु ठिदो॥
अर्थ:-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'यत्र और तत्र' अव्यय रूप शब्दों का अपभ्रंश भाषा में रूपांतर करने पर इनके अंत में अवस्थित 'त्र' माग के स्थान पर "डित' पूर्वक 'एत्थु और अस' ऐसे दो 'प्रादेश-रूप अंश-भाग' की प्राप्ति होती है । 'डित' पूर्वक कहने का तात्पर्य यह है कि 'यत्र और तत्र' में अवस्थित '' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेषांश 'य' और 'त' में स्थित अन्य 'अ' का भी लोप होकर आदेश रूप से प्राप्त होनेवाले 'पत्थु अथवा अत्त' को उनमें संधि हो जाती है। जैसे:-यत्र = जत्थु और जत्तु-जहाँ पर । तत्र-तेस्थु और तत्त-वहाँ पर । गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृतः--यदि स घटयति प्रजापतिः, कुत्रापि लावा शिक्षाम् ।।
यत्रापि तत्रापि अत्र जगति, भण, तदा तस्याः सदृक्षीम् ॥ १॥