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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[५४७] ++++++++++++++++++++++++++++++++++0x +++++++++++++ +++++++++ प्रयत्न करेगा । यो मेरे इन मनोरथों को यह कठिनाई म वश में मानवाला प्रेमी पनि प्रायः पूर्ण करेगा अथवा करता है। इस गाथा में 'प्रायः' के स्थान पर आदेश-पाप्ति के रूप में होने वाले चौथे शब्द 'पगिाब' को प्रदर्शित किया गया ६४४-४१४१
वान्यथोनुः ॥४-४१५ ॥ अपभ्रंशे अन्यथा शब्दस्य अन इत्यादेशो वा भवति ।। पन्ने । अनह ॥
बिगहाणल-जाल-करालिअउ, पहिउ कोवि बुद्धि वि ठिप्रयो॥
अनु सिसिर-कालि सीअल-जलहु धूम कहन्ति हू उद्विप्रा ॥१॥ , अर्थ:-'अन्य प्रकार में दूसरी तरह से इस अर्थ में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत अव्यय शब्द 'अन्यथा' के स्थान पर अपनश भाषा में विकल्प सं 'अनु' शब्द रूप की प्रादेश प्राप्ति होती है। परिपक पक्ष होने से पनान्तर म 'अन्नह' रूप का भी प्रानि होगी। जैसे:-अन्यथा-अनु अथवा अन्नह= अन्य प्रकार से अथवा दूसरी तरह से । गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृतः-विरहानल ज्वाला करालितः पथिकः कोऽपि मङ क्त्वा स्थितः ।।
अन्यथा शिशिर-काले शीतल जलात् धूमः कुतः उत्थितः ॥१॥ हिन्दी-अपनी प्रियतमा पत्नी के वियोग ही अम्ति की ज्वालाओं से पीड़ित होता हुआ कोई यात्रो-पथिक विशेष जल में डूबको लगाकर ठहा हुआ है। यदि वह ( अग्नि ज्वाला से ज्वलित ) नहीं होता तो ठंड को ऋतु में ठंडे जाल में में धूपा वाष्प रूप ) कहाँ से उठता ? इस सुन्दर कल्पनामयी गाथा में 'अन्यथा' के स्थान पर 'अनु अध्यय रूप का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है । १३.५।।
कुतसः कउ कहन्तिहु ॥ ४-४१६ ।। भयनशे कुतस् शब्दस्य कउ, कहन्तिहु इत्यादेशी भवतः ।।
महु कन्तहो गुट्ट-दृग्रहो कर झुम्पड़ा वरून्ति ।।
अह रिउ-रुहिरें उन्दवइ अह अप्पणे न भन्ति ॥१॥ धूमु कहन्तिहु उद्विअउ ::
अर्थः- 'कहाँ से' इप अथ में प्रयुक्त किये जाने वाले संस्कृत अध्यय शब्द 'कुतः' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'कर और कहन्ति' ऐस दो श्रभ्यय शब्द रूपों को आदेश प्राप्त होती है। जैसेफुलः = कब और कहनि हुकहाँ से ? गाथा में क्रम में इन दोनों का प्रयोग किया गया है। इसका अनुशार यां है: