________________
[५४४ ]
* प्राकृत व्याकरण *
(६) तृणानां तृतीया भङ्गो नापि-तरह तइज्जी भङ्गि नवि-तिनकों की तोसरी स्थिति नहीं मी (होती है)। गाथा के इस चरण में 'तणह' के स्थान पर 'तणहँ लिख कर यह सिद्वान्त प्रतिपादित किया है कि पदान्त 'ह' का उच्चारण लघु रूप से होने पर हैं' ऐसा होता है। इन सब उदाहरणों से और इम सूत्र से यही संविधान किया गया है कि पदान्त में रहे हुए ', हुं. हि और है के स्थान पर उच्चारणलघुता की दृष्टि से 'उ, हुँ, हिँ और हैं' ऐसा स्वरूप भी होगा ॥ ४-४११ ।।
म्हो म्भो वा ॥४-४१२॥ अपभ्रंशे म्ह इत्यस्य स्थाने म्भ इति मकाराकान्तो भकारो वा भवति ।। म्ह इति पक्षम-श्म-ग. सम-या दः (२.03) इति गाहह जन विहितोऽत्र गृह्यते । संस्कृते तदसंभवात् । गिम्भो। सिम्भो ।।
बम्भ से विरला के वि नर जे सव्यङ्ग-छाइन्छ । जे पक्का वे वञ्चयर. जे उज्जुन ते बइल्ल । १।।
अर्थः-सूत्र-संख्या २-७४ में ऐसा विधान पाया है कि:-'पदम' में स्थित 'आम' के स्थान पर और 'श्म, म, स्म तथा टे' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'मह' की श्रादेश प्रालि होतो है; तदनुसार आदेश प्राप्त 'मह' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में हलन्त मकार संलग्न भकार की अर्थात 'मम' की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। 'इ' का प्राप्ति प्राकृत-माषा में ही होती है। संस्कृत-भाषा में इसका प्रभाव है, इसलिये इस सूत्र में जो मह' के स्थान पर 'म्भ' प्राप्ति का संविधान किया गया है, उसका मूल स्थान प्राकृत-भाषा में रहा हुआ है ऐसा जानना चाहिये । जैसे:--प्रोमः = गिम्हों और गिम्भोषणता की ऋतु । यों अपभ्रंश भाषा में प्रीष्मः' शब्द के अर्थ में 'गिम्हो और गिम्भी' दानों प्रकार के पदों का अस्तित्व है। (२) श्लेश्मा = सिम्हां और सिम्भो-कफ-खेंखार । इस उदाहरण में भी श्लेश्मा' के दो पद 'सिम्हो और सिम्भो' इस सूत्र के अनुमार बतलाये गये हैं। गाथा का अनुवाद यों है:
संस्कृत:-ब्रह्मन् ! ते विरलाः केऽपि नराः, ये सर्वाङ्गच्छेकाः ॥
ये वक्राः ते वञ्च (क) तराः, ये ऋजवः ते बलीवर्दाः ।।
हिन्दी:-श्रो ब्राह्मण ! ऐसे पुरुष अत्यन्त हो कम है विरल है; जोकि सभी प्रसंगों में अच्छे और चतुर प्रमाणित हों। जो वक्र (टेढ़ी) प्रकृति वाले हैं, वे ठग हैं और जो सीधे अर्थात धतुरई रहित और विवेक रहित होते हुए स्पष्ट वक्ता हैं वे बैल के समान है। इस गाथा में 'ब्रझन्' के स्थान पर 'बम्भ' का प्रयोग करके यह प्रमाणित किचा है कि अपनश भाषा में 'मह' के स्थान पर विकरूप से '' की प्राने देखी जाती है ॥ ४-४१२॥