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* प्राकृत व्याकरण * mo000000000000000000000000000000rrrrrorise+0000000000000000000000000.
अापद्विपत्-संपदां द इः ॥४-४०० ॥ अपभ्रंशे श्रापद्-विपद् -( संपद् )-इत्येतेषां दकारस्य इकारो भवति ॥
अणउ करन्तहो पुरिसहो श्रावइ प्राव। चिवइ । संपइ ।। प्रायोधिकारात् । गुणहि न संपय किसि पर ।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'श्रापद, विपद-संपद' शब्दों में उपस्थित अन्त्य व्यञ्जन 'दकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'इकार' स्वर को आदेश प्राप्ति (कमो कभी) हो जाती है। जैसे:(१) आपद् = भाषा-आपत्ति-दुख । (२) विपद-विवड़ = विपास-संकट ! (३) संपन् - संप - संपतिसुख !| गाथा के चरण का रूपान्तर यों है:
अनयं कुर्वत: पुरुषस्य प्रापद आयाति -अणइ फरन्तहो पुरिसहो प्रावइ आवई - अनीति को करने वाले पुरुष के { लिये ) आपत्ति आती है ।
'प्रायः' अव्यय के साथ उक्त विधान का उल्लेख होने से कभी कमी 'आपद्-विपद्-मपद' में रहे हुए अन्त्य व्यजन 'दकार' के स्थान पर 'इकार' रूप की श्रादेश-प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:आपद्-यावय अथवा प्रावया । (२) विपद् = विवय अथवा विषया और (३) संपद् =संपय अथवा संपया । गाथा के चरण का रूपान्तर यों है:-गुणः न संपत् कीर्तिः परंगुणहिं न संपय किसि पर - गुणों से संपत्ति ( धन द्रव्य ) नहीं (प्राप्त होती है-होता है। परन्तु कीर्ति (हो प्राप्त होती है ) इम दृष्टान्त में 'मंषद्' के स्थान पर 'संपइ' पद का प्रयोग नहीं किया जाकर 'संपय' पद का प्रयोग किया गया है। यों सर्वत्र समझ लेना चाहिये ॥ ४-४०० ॥
कथं यथा-तथा थादेरेमेमेहेधा डितः ॥ ४-४०१ ॥
अपम्रशे कथं यथा तथा इत्येतेषां थादेवयवस्य प्रत्येकम् एम इम इह इध इत्येते डितश्चत्वार आदेशा भवन्ति ॥
केम समप्पउ दुइ दिणु किध रयणी छुद्ध होइ॥ नय-बहु-दमण-लालसउ वहइ मणोरह सोइ ॥१॥ ओ गोरी-मुह-निजिअउ बदलि लुक्क मियक ।। अन्नु विजो परिहविय-तणु सो किवं भह निसङ्कः ॥२॥ बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरि आणन्द ॥ निरूवम-रसु पिए पिअवि जणु सेसहो दिण्णी मुद्द॥३॥