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* प्राकत व्याकरण *
उष्णतामय ताप प्रदान करता रहता है || इस गाथा में 'मया' के स्थान पर 'मई' पद रूप का प्रयोग किया गया है।
_ छि' का सदाहरण यों है:-त्वयि मार्य द्वयोरपि रण गत्तयों:- पई माई बेहि पि रण-गयहि = युद्ध-क्षेत्र में गये हुए तुझ पर और मुझ पर दोनों ही पर।(पुरी गाथा सूत्र संख्या ४-३७० में देखो)। यहाँ पर 'माय' के स्थान पर 'मह' का प्रयोग है।
'अम्' का दृष्टान्त इस प्रकार है:-माम मुञ्चतस्तव-मई मेल्लन्तहो तुज्म-मुझ को छोड़ते हुए तेरी। ( पूरी गाथा सूत्र संख्या ४-३६० में दी गई है)गाया के इस चरण में 'माम्' पद के स्थान पर 'माई' पद प्रदर्शित किया गया है ।। ४-३७७ ।।
अम्हेईि भिसा ॥ ४-३७८ ।। अपभ्रशे अस्मदो भिसा सह अम्हहि इत्यादेशो भवति ॥ तुम्हेहिं अम्हेहि बं किउं ।।
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'अस्मद्' मर्वनाम शब्द के साथ में तृतीया विभक्ति के बहुवचन वाले प्रत्यय 'मिस' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद्' और प्रत्यय 'मिस' दोनों के स्थान पर 'अम्हेटिं' ऐसे एक ही पद की नित्यमेव आदेश प्राग्नि हाती है। जैसेः--युष्माभिः अस्माभिः यह कृतम् = तुम्हेहि अम्हेहिं अंकिआउँ-तुम्हारे से, हमारे से जो किया गया है ॥ ४-३०८ ॥
महु मझु सि-इस-भ्याम् ॥ ४-३७६ ॥ अपभ्रंशे अस्मदो उसिना सा च सह प्रत्येक महु मज्मु इत्यादेशी भवतः ॥ मडू होन्तउ गदो । मझु होन्तउ गदो ॥ उसा।
महु कन्तहों के दोसडा, हेनि । म झसहि आलु । देन्तहों हउ पर. उव्वरिन जुज्झन्तहो कर यालु ॥ जा भग्गा पारकडा तो सहि ! मझु पिएण ।
अह भग्गा अम्हहं तणा तो ते मारिअडेण ॥ अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'मैं-हम' वाचक मर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के साथ में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'इमि' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'अस्मद् और प्रत्यय 'सि' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'महु' और 'मामु' ऐसे दो पद-रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-मत- महु और मझु = मुझसे अथवा मेरे से । इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शान "अस्म" के साथ में षष्ठी विभक्ति के एफ वचन के प्रत्यय "स्" का संबंध होने पर उसी प्रकार से मूल शब्द "मस्म" और प्रत्यय ""