________________
* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[५११] varswaosmarrowroto10000000000000000000000000000000000 बावधन का बोधक प्रत्यय "श्राम्' का सम्बन्ध होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय दोनों के स्थान पर भी उसी प्रकार से 'तुम्हह' पद रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति जानना चाहिये । जैसे
(१) युष्मभ्यम् = तुम्हह-तुम्हारे लिये अथषा आपके लिये। (१) युष्माकम् = तुम्हह-तुम्हाग, तुम्हारी, तुम्हारे 'और पापका, आपकी, आपके, इत्यादि ।
सूत्र में और वृत्ति में 'चतुर्थी-विभक्ति' का उल्लेख नहीं किया गया है परन्तु सूत्र-संख्या ३.१३१ के विधान से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की अनुमति दी गई है। इसलिये यहाँ पर चतुर्थी विभक्ति का उल्लेख नहीं होने पर भी शब्द-व्युत्पत्ति को समझाने के लिये चतुर्थी विभक्ति की आदेश-प्राप्ति भी समझा दी गई है। वृत्ति में दिये गये उदाहरणों का स्पष्टीकरण यों हैं:
(१) युध्मत भवतु आगतः =तुम्हहं होन्तउ आगदो-तुम्हारे से-( आपसे ) आया हुश्रा( प्राप्त हुआ ) होवे ।
(२) युष्मभ्यम् करोमि धनुः = तुम्हह केरस धणु =मैं तुम्हारे लिये धनुष्य करता हूँ।
(३) युष्माकम् करोमि धनुः - तुम्हहं केरलं धणु = मैं तुम्हारे-आपके-धनुष्य को करता हूँ। ॥४-३४२ ॥
तुम्हासु सुपा ॥ ४-३७४ ॥ अपभ्रंशे युष्मदः सुपा सह तुम्हासु इत्यादेशो भवति ॥ तुम्हासु ठिअं ॥
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द में सप्तमी विभक्ति बहुवचन बोधक प्रत्यय 'सुप' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय 'सुप' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'तुम्हासु' ऐसे पद रूप की पादेश प्राप्ति है। जैसे:--युमासु स्थितम्-तुम्हासु ठितुम्हारे पर अथवा तुम्हारे में रहा हुमा है। पाप पर अथवा पाप में स्थित है ।। ४-३७४ ।।
सावस्मदो हउँ ॥ ४-३७५ ॥ अपभ्रंशे अस्मदः सौ परे हउं इत्यादेशो भवति ॥ तसु हउं कलिजुगि दुलहहो ।।
अर्थः-अपभ्रश भाषा में 'मैं-हम' वाचक 'अस्मद्' सर्वनाम शब्द में प्रथमा विभक्ति के एक पचन बोधक प्रत्यय 'सि' का संयोग होने पर मूल शब्द 'अस्मद' और प्रत्यय 'सि' दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'हो' पद रूप को आदेश प्राप्ति होतो है। जैसे:-तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य = तमु हर्ड कलिजुगि दुल्लहहो = उस दुर्लम का मैं कलियुग में। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३३८ में दी गई है)। यो 'मैं' अर्थ में 'इ' का प्रयोग होता है ।। ४-३७५ ।।