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समय पड़ने पर भी दोनों को ही (जीवन तथा धन को भी) तृण घास तिनके के समान ही गिनता है । अर्थात दोनों का परित्याग करने के लिये विशिष्ट पुरुष तत्पर रहते हैं ||२||४-३५८||
स्त्रिय डहे ॥ ४- ३५६ ॥
अपभ्रंशे स्त्रीलिंगे वर्तमानेभ्यो यत्तत्- किंम्यः परस्य इसी उहे इत्यादेशो वा भवति || जहे केरल | तहे करउ | कहे केरउ ||
* प्राकृत व्याकरण *
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अर्थ :- अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग वाचक सर्वनाम 'या = जा', सा' और 'का' के पनी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इस' के स्थान पर 'उहे आहे' प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। 'बहे' रूप लिखने का यह रहस्य है कि 'जा, मी अथवा ता और का' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्री' का 'डद्दे - अहे' प्रत्यय जोड़ने पर लाप हो जाता है। यों 'हे' प्रत्यय में अवस्थित 'डकार' इत्संज्ञक है। इस प्रकार हैं:--- १) रत्याः कृते = जहे रउ = जिसके लिये । (२) तस्याः कृते = त केरउ = उसके लिये और (३) कस्याः कृते कहे फेरउ = किसके लिये ।।४-३५६ ॥
उदाहरण कम
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तदः स्यमो
अपभ्रंशे यत्तदोः स्थानं स्यमोः परयोर्यथासंख्यं धुं श्रं इत्यादेश वा मतः ॥ गणि चिट्ठदि नाहु रणि करदि न भ्रन्ति ॥१॥
पचे । तं बोल्लिइ जु निव्वहड़ ||
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श्रं ॥ ४-३६० ॥
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'यत' सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में से प्रत्यय प्राप्त होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'यत' और 'प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों विभक्तियों में ' रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तत' सर्वनाम में भी प्रथमा विभति के एकवचन में सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम' प्रत्यय जुड़ने पर मूल शब्द 'तत्' और विभक्ति-प्रत्यय क्षेत्रों के स्थान पर दोनों विभक्तियों में '' रूप को विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार से है:(१) प्रांगण तिष्ठति नाथः यत् यद् रणे करोति न भ्रान्तिम्-प्रगणि विवि नाडु त्र राण करदि न अन्ति = (क्योंकि) मेरे पति यांगन में विद्यमान है; इस लिये रण-क्षेत्र में संदेह को (अथवा भ्रमण को ) नहीं करता है। वैकल्पिक पक्ष होने से पचान्तर में 'यत्' के स्थान पर 'जु' रूप को और 'तत्' के स्थान 'तं' रूप को भी प्राप्ति होगी। उदाहरण यों है: - तं बलम जु निव्वन्तत् जल्प्यते यत् निर्वहति (उससे) वही बोला जाता है, जिसकी वह निबाहता है ।।४-३६० ॥
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