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१ प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित *
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अर्थ:--अपनश भाषण में अकारान्त शब्दों में षष्ठो विभक्ति के एकवचन तथा यहुवचन में प्रापध्य प्रत्ययों का विकल्प से अथवा प्रायः लोप होता है; इकारान्त एवं उकारान्त शब्दों में भी षष्ठी एकवचन के प्रत्ययों का सर्वथा लोप हो जाना है, ऐमा होने पर मूल अङ्ग के अन्य स्वर को हो विकल्प से दीर्घत्व की प्राप्ति होती हैं। जैसे:-इास अथवा इसी = ऋषि का। गुरु अथवा गुरू = गुरुजी का । स्त्री लिंग शब्दों में भो षष्ठी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में प्राप्तब्य प्रत्यय का विकल्प से लोप होता हैं । वृत्ति में उद्धत गाथा में षष्ठो विभक्ति वाले तीन पर आये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-१) अइमत्तहमतिमत्तानां - बहुत ही मदोन्मत्त हुओं को; (२) चत्त कुसहं त्यक्तांकुशानाम् = जिन्होंने अंकुश ( हाथो को संभालने का छोटा सा हथियार विशेष ) को चुभाकर दिये जाने वाले आदेश को मानने से इन्कार कर दिया है. ऐ.ले ( हाथियों ) को; (३) गय = गजाना हापियों को। इन बदा. हरणों में से प्रथम दो उदाहरणों में तो षष्ठी-बहुवचन-बोधक-प्रत्यय 'ह' का अस्तित्व हैं; जबकि तीसरे पद में उक्त प्रत्यय का लोप हो गया ; यो पो बिमाक में प्राय प्रत्यय की 'प्रायः' स्थिति कही गई हैं। गाथा का अनुवाद इस प्रकार है:संस्कृतः-संगरशतेपु यो मण्यते पश्य अस्माकं कान्तम् ।।
अतिमत्तानां त्यक्ताड कुशानां गबानां कुम्भान् दारयन्तम् ॥ १॥ अर्थः-अति मदोन्मत्त और अंकुश को भी नहीं मानने वाले ऐसे हाथियों को गर्दनों का विदारण करने वाले और ऐसा पराक्रम होने के कारण से जिसके यश का वर्णन सैकड़ों युद्धों में किया जाता हैं; ऐसे हमारे पति को देखो ॥ १॥
'गय कुम्भई' पर का निर्माण समाप्त रूप में भी हो सकता हैं और ऐप्ता होने पर 'गया' पद में रहे हुए प्रत्यय 'हं' का व्याकरणानुसार लोप हो जाता है; परन्तु यहाँ पर प्राप्तव्य प्रत्यय 'हं' का लोप 'समास नहीं करके ही बतलाने का ध्येय हैं। इसलिये इस गय' पद को 'कुम्भइ ' पद से पृथक हो समझना चाहिये । इप्त मन्तव्य को समझाने के लिये ही वृत्तिकार ने वृत्ति में 'पृथक-योगी' अर्थात् दोनों को अलग अलग समझा' ऐसी सूचना उक्त पदों से दी हैं। 'लक्ष्यानुसारार्थः' का तात्पर्य यह है कि:व्याकरण के नियम का अनुसरण करने के लिये ही उक पद 'गय' को षष्ठी-विभक्ति वाला ही समझो । । ४.३४५ ॥
अामन्ये जसो होः ।। ४-३४६ ॥ अपभ्रंशे आमन्त्र येर्थे वर्तमानानाम्नः परस्य जसो हों इत्यादेशो भवति । लोपापवादः ॥
तरूणहो तरूणिही मुणिउ मई करहु म अप्पहो घाउ ॥