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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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अर्थः-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में, पुझिंग और नपुसकलिंगों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होती हैं। इसके सिवाय मूल-सूत्र में और वृत्ति में प्रदर्शित 'चकार' से सूत्र-संख्या ४.३४२ में वर्णित प्रत्यय 'अनुस्वार तथा ण' को अनुभूति भी फर लेनी चाहिये । यो इकारान्त ठकाराप्त शब्दों में सृतीया विभकि के एकवचन में 'एं, अनुस्वार और ण' इन तीन प्रत्ययों का समाव हो जाता है। इन के अतिरिक्त सूत्र संख्या १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर विकल्प से अनुम्वार की प्राप्ति भी हो जाती है। 'ए' प्रत्यय के उदाहरण उपरोक्त प्रथम गाथा में इस प्रकार दिये गये हैं:-(१) अग्निना = अग्गिएं - अग्नि से; (२) पातेन = वाएं = हवा से । अनुस्वार का पदाहरण:-(१) अग्निना = अगिअग्नि से । द्वितीय गाथा में 'ण' प्रत्यय और 'अनुस्गर' प्रत्यय का एक एक उदाहरण दिया गया हैं। जो कि इस प्रकार हैं:(१) अग्गिण = अग्निना = अग्नि से और (२)ततेन = उससे तथा (३) अग्गि- अग्निना अग्नि से । ये उदाहरण इकारान्त पुल्लिग शब्द के दिये गये हैं और अकारान्त पुल्लिंग शब्द के उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐसी सूचना पन्थकार वृत्ति में देते हैं । उपरोक्त दोनों गाथाओं का संस्कृत एवं हिन्दो अनुवाद कम से इस प्रकार है:संस्कृतः-अग्निना उष्णं भवति जगत्; बातेन शीतलं तथा ।
यः पुनः अग्निना शीतलः , तस्य उष्णत्वं कथम् ॥ १ ॥ हिन्दी:-यह सारा संसार अग्नि से उष्णता का अनुभव करता है और हवा से शीतलता का अनुभव करता है। परन्तु जो ( सन्त-महात्मा ) अग्नि से शीतलता का अनभव कर सकते हैं, उनको सध्यता जनित पीड़ा कैसे प्राप्त हो सकती है ? अर्थात् त्याग शील महात्मा को विषय कषाय रूप अग्नि कुछ भा पीड़ा नहीं पहुँचा सकती हैं। संस्कृत:-विनिय कारकः यद्यपि प्रियः तदपि ते आनय अध ।
अग्निना दग्थं यद्यपि गृह, तदपि तेन अग्निना कार्यम् ॥ २॥ हिन्दी:-मेरा पति मुझे दुःख देने वाला है, फिर भी उसको माज (हो ) यहाँ पर लाओ। ( क्योंकि अन्त तो गवा वह मेरा स्वामी ही हैं ) जैसे कि अग्नि से यद्यपि सारा घर जल गया है, फिर मी क्या अग्नि का त्याग किया जा सकता है? अर्थात क्या दैनिक कार्यों में अग्नि को आवश्यकता पड़ने पर अग्नि का उपयोग नहीं किया जाता हैं । ॥ २ ॥ ४-३४३ ।।
स्यम्-जस-शसां लुक् ॥ ४-३४४ ॥ अपनशे सि, श्रम्, जस्, शस्, इत्येतेषां लोपो भवति ॥ एइ ति घोडा, एह थलि ॥ (४-३३०) इत्यादि । अत्र स्यम् जसो लोपः ॥