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* प्राकृत व्याकरण *
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संस्कृत:---निज मुख करेंः अपि मुग्धा करं अन्धकारे प्रतिपेक्षते ॥
शशि- मंडल - चन्द्रिका पुनः किं न दूरे पश्यति { 11
हिन्दी:- ( विषयों में आसक्त हुई ) मुग्धा (श्री) अपने मुख को किरणों से भी अकार में अपने हाथ को देख लेती हैं, तो फिर पूर्ण चन्द्र मंडल की चांदनी से दूर दूर तक क्या नहीं देख सकत्तो हैं ? अथवा किन किन को नहीं देखती हैं ॥ १ ॥
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(२) संस्कृतः - यत्र मरकत कान्त्या संवलितम् = जहिं मरगय- फन्तिए संवालिअं जहाँ पर मरकतमणि की कान्ति से आमाले घेराये हुए को आच्छादित को । (गाथा रूपों की कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिये ।। ४- ५४६ ।।
है ) । २ ॥ शेष
डस् - स्योहें ॥ ४३५० ।।
अपभ्रंशे स्त्रियाम् वर्तमानानाम्नः परयोङस् ङसि इत्येतयोर्हे इत्यादेशो भवति ॥ रसः । तुच्छ मन्महे तुच्छ जपिरहे ।
तुच्छच्छ - रोमावलिहे तुच्छ - राय तुच्छर हामई । पिय-बय अहन्ति आहे तुच्छकाय वम्मह निवासदे । अन्जु तुच्छ तहे धणहे तं अक्खणह न जाइ । करि तरूद्ध जें मणु विच्चि य माइ ॥ १ ॥
इसेः | फोडेन्ति जे हिउँ अपण ताई पराई कवणवण ।
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रक्खेज्जहु लोहो अपणा बालहे जाया विसम थण ॥ २ ॥
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों में पंचमी विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'हे' प्रत्यय रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'है' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हो जाया करती है। सूत्र संख्या ४- २४५ से पष्ठी विभक्ति के एकवचन में वक्त रीति से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'हे' का लोप भी प्रायः हो जाया करता है। इसके अति रिक्त प्राप्तव्य प्रत्यय 'हे' की संयोजना करने के पूर्व अथवा 'है' प्रत्यय के लोप होने के पूर्व जीलिंग शब्दों में अन्त्य रूप से रहे हुए स्वर की 'हस्त्र से दीर्घत्व और दीर्घ से स्वत्व' की प्राप्ति भो वैकल्पिक रूप से हो जाया करती हैं; यों पंचमी विभक्ति के एकवचन में दो रूपों की प्राप्ति होती हैं और पष्ठी विभक्ति के एकवचन में धार रूपों की प्राप्ति का विधान जानना चाहिये । वृत्ति में पंचमी और षष्ठी विभक्तयों के रूपों को प्रदर्शित करने के लिये जो गात्रायें उधृत की गई हैं; उनमें श्राये हुए पदों में 'हे' प्रत्यय को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है। गाथाओं का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद से इस प्रकार हैं:
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