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[ ४८८ ]
* प्राकृत व्याकरण *
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जिन जिन किम लोअहं, सिरु सामलि सिक्खे |
तिवाँ तियाँ वम्म निश्रय- सर खर- पत्थरि तिक्खे || १ || अत्र स्यम् शर्मा लोपः ।।
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अर्थः- पश माषा में इकारान्त पुल्लिंग और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के दोनों बचनों में तथा द्वितीया विभक्ति के दोनों वचनों में क्रम से प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि, जस् और अम् श का लोप हो जाता है। लोप होने के पश्चात उक्त दोनों विभक्तियों के दोनों वचनों में दो दो रूप क्रम से स्वरान्त और दीर्घ स्वरान्त के रूप में बन जायेंगे । अर्थात् ह्रस्व इकार दीर्घ ईकार के रूप में और स्व उकार दीर्घ ऊकार के रूप में विकल्प से स्थान ग्रहण कर लेता हैं। जैसा कि सूत्र संख्या४-३३० में लिखित गाया में अंकित 'थलि' पद से ज्ञात होता है। स्थलो=थजि = पृथ्वी भाग । यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' का लोप हुआ है । उपरोक्त सूत्र- रचना से भी ज्ञात होता है कि अकारान्त पुलिंग शब्दों में भी प्रथमा के दोनों वचनों में तथा द्वितीया के दोनों वचनों में भी विकल्प से इन प्राप्तस्य प्रत्यय 'सि, जस्, अम् शन का लोप हो जाता है। खोप प्राप्ति के पश्चात अन्त्य ह्रस्वस्वर अकार के स्थान पर विकल्प से दोर्घ स्वर 'आकार' को भी प्राप्ति होती हैं। उदाहरण के रूप में सूत्र संख्या ४-३३० में दी गई गाथाओं के पदों में ये रूप देखें जा सकते हैं। कुछ उदाहरण इस सूत्र के सन्दर्भ में दी गई गाथा में भी दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) श्यामला = सामाल = श्याम वर्ण वाली नायिका (प्रथमान्त पर ) | (२) निजक- शरान-निश्रय-पर अपने बाणों की ( द्वितीयाबहुवचनान्त पद ) (३) वकिमाण = किम = नेत्रों को टेढ़ा करने की वृत्ति को ( द्वितीया एक वचनान्त पद ) इन उदाहरणों द्वारा उक्त विभक्तियों में प्राप्तव्य प्रत्ययों को लोप प्रदर्शित किया गया हैं। पूरी गाथा का अनुवाद इस प्रकार हैं:
संस्कृतः यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोः नितरां श्यामला शिक्षते ॥ तथा तथा मन्मथः निजकशरान् खर- प्रस्तरं तीक्ष्णयति ॥
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हिन्दी:- यह श्याम वर्णीय नत्र युक्ती ज्यों ज्यों दोनों घाँखों द्वारा कटाक्ष-पूर्वक वक्र देखने की वृत्ति को सोखती हैं; त्यों त्यों कामदेव अपने बाण को तीक्ष्ण-पत्थर पर अधिकाधिक तीक्ष्ण-तेज करता जा रहा है ।। ४-३४४ ॥
पढ्याः ॥ ४-३४५ ।।
अपभ्रंशेपट्या विभक्त्याः प्रायो लुग् भवति ॥
संगर-सए हिँ जुणिअड़ देक्खु अम्हारा कन्तु ॥ श्रमसहं चत्तङ्क सहं गयकुम्भ दारन्तु ॥ १ ॥ पृथग्योगो लक्ष्यानुसाराधेः ॥
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