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पीने और पहिनने की सामग्री के अलावा केवल ( नकली रूप से ) थोड़ा सा चादर ( मात्र हो ) अधिक प्राप्त करते हैं । (फिर भी चाश्चर्य हैं कि उन्हें वैराग्य नहीं भाता है ) || २ || 'कि=हि' का दृष्टान्त यों है: -फलिहि-कलौ= कलियुग में पूरी काव्य-पंक्ति का संस्कृत-पूर्वक हिन्दी अनुवाद यों हैं:
संस्कृतः - श्रथ विरल - प्रभावः एव कलौ धर्मः ॥ ३ ॥
हिन्दी:- कलियुग में निश्चय हो धर्म अति स्वल्प प्रभाव वाला हो गया है । ।। ३ ।। ४-३४१ ।।
आट्टो खानुस्वारौ ॥ ४-३४२ ॥
अपभ्रंशे अकारात् परस्य टा वचनस्य णानुस्वारावादेशौ भवतः ॥ दएं पक्षसन्ते ॥
* प्राकृत व्याकरण *
अर्थ:ई:- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों के तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्रसव्य संस्कृतप्रत्यय 'टा' के स्थान पर (१) '' और ( २ ) 'अनुस्वार' यों दो प्रत्ययों को आदेश प्राप्ति होती हैं। इन आदेश प्राप्त प्रत्ययों के पूर्व मूल रूप अकारान्त शब्दों के अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१४ से 'ए' को प्राप्ति हो जायगी । यों प्राप्त प्रत्यय का रूप (१) पण और (२) 'एं' हो जायगा । सूत्रसंख्या १-२७ से 'एण' के स्थान पर 'ए' रूप की भी विकल्प से प्राप्ति होगी। इस प्रकार से तृतीयाविभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों में तीन प्रत्यय हो जायगे । जैसे:- (१) जिपेण, (२) जिणं (३) जिणें । वृत्ति में दिया गया उदाहरण इस प्रकार से हैं: -- दृहये पवसन्तेण - दयितेन प्रवसता = प्रवास करते हुए ( विदेश जाते हुए ) पतिदेव से || इस वाक्य में 'फ' और 'अनुस्वार' दोनों प्रत्ययों का उपयोग प्रदर्शित कर दिया गया हैं। शब्दान्त्य 'अकार' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति भी हुई हैं । ।। ४-३४२ ।।
अपभ्रंशे
भवन्ति ॥ एं ॥
एं चेदुतः ॥ ४- २४३ ॥
इकारोंकाराभ्यां
परस्य टावचनस्य एं चकारात् खानुस्वारौ च
अम्मिए उन्हउ होइ जगु वाएं सीलु जो पुणु अग्गिं सीला तसु उराह खानुस्वारों ।
तणु
विप्पिय - आरउ जवि पिउ तो वि तं श्रग्गिय दड्ढा जइ वि घरू तो तें एवमुकारादप्युदाहार्याः ॥
ते ॥
केनें ॥ १ ॥
श्राहि अज्जु || श्ररिंग कज्जु ॥ २ ॥