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* प्राकृत व्याकरण *
onsotrostron+00000000000000000 सो वरि सुक्खु पइट ण वि करण हिं खल-बयणाई ॥१॥ प्रायोधिकारात् कचित् सुपीपि हुँ। धवलु विसरह सामि अहो, गरुमा मरू पिक्खे वि॥ हउ कि न जुत्तउ दुहुँ दिसिहि खंडई दोषिण करे यि ॥२॥
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों के षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर पहुं और है' ऐसे दो प्रत्ययों की श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसा कि प्रथम गाथा में आये हुए निम्नीक्त पदों से जाना जा सकता हैं। (१) तनहुँ - तरूणां-वक्षों के; (२) सउणि ईशकु= नीना - पक्षियों के ( लिये ) प्राकृत-अपभ्रंश यादि भाषाओं में 'चतुर्थी और षष्ठीविभक्तियों एक जैसी ही होती है इसलिये हमरा पर मिह पटरी में होता हुमा मी चतुर्थीविभक्ति-वोधक है । गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी भाषान्तर निम्न प्रकार से हैं:संस्कृतः-देवः घटयति बने तरूणां शकुनीनां ( कृते ) पक्व-फलानि ।।
तद् परं सोख्यं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खल-बचनानि ।। अर्थ:-भाम्य ने वन में पक्षियों के लिये वृक्षों पर पके हुए फलों का निर्माण किया हैं। ऐसा होना पक्षियों के लिये बहुत सुखकारी ही है, क्योंकि इससे (पेट पूर्ति के लिये ) पक्षियों को दुष्ट-पुरुषों के वचन तो कानों द्वारा नहीं सुनने पड़ते हैं; अर्थात् खल-वचन कानों में अधेश तो नहीं करते हैं ।। १ ।।
प्रायः' अधिकार से हु' प्रत्यय इकारान्त-उकारान्त' शब्दों के लिये सप्तमी-विभक्ति के बहुवचन में भी प्रयुक्त होता हुछा देखा जाता है । सप्तमी के बहुवचन में हिं. प्रत्यय की प्रापि आगे भाने वाले सूत्र संख्या ४-३४७ से जानना चाहिये । यहाँ पर 'हुँ' प्रत्यय की सिद्धि के लिये द्वितीय गाथा में 'दुहुँ= द्वयोः = दो में ऐसा पद दिया गया है । द्वितीय गाथा का संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद कम से इस प्रकार हैं:--
संस्कृतः-धवलः खिद्यति ( विसरइ) स्वामिनः गुरू भारं प्रेत्य ।।
अहं किं न युक्तः द्वयोर्दिशोः खंडे द्वे कृत्वा ॥२॥ अर्थ:--( कवि कल्पना है कि एक विवेको ) सफेद बैल अपने ( एक और जुते हुए ) स्वामी को भारी बोम से ( लदा हुधा) देख करके अत्यन्यत दुःख का अनुभव करता है और (अपने आप के लिये कल्पना करता है कि )-मैं दो विभागों में क्यों नहीं विभाजित कर दिया गया, जिससे कि मैं जुए की दोनों दिशाओं में दोनों ओर जीत दिया जाता ॥४.३४ ॥
ङसि-भ्यस्-डीनां हे-हु-हयः ॥ ४-३४१ ॥