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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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अपभ्रशे इदुद्-भ्यां परेषां ढ सि-भ्यस्-डि इत्येतेपो यथासंख्यं हे, हुं, हि इत्येते त्रय आदेशाः भवन्ति ।। उसे हैं ।
गिरिहे सिलायलु, तरुहे फलु घेप्यइ नीसावन्नु । घरु मेन्लेप्पिणु, माणुसहं तो वि न रुच्चइ रन्नु ॥ १ ॥ श्यसो हुँ ! तरुहुँ वि बक्कलु फल मुणि वि परिहणु असणु लहन्ति ।। सामिहुँ एत्तिउ अग्गलउं, आयरू मिच्चु गृहन्ति ॥२॥
ढे हि । अह विरल-पहाउ जि कलि हि धम् ॥ ३॥ अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त शब्शे के और षकारान्त शब्दों के पंचमी विमक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय एसि के स्थान पर 'हे' प्रत्यय की आदेश-प्रालिसी है। इन्हीं शब्दों के पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्रामव्य संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस' के स्थान पर 'हुँ' प्रत्यय की प्रादेश प्राप्ति होती है और सातमी विभक्ति के एकवचन में मानव्य संस्कृत-प्रत्यय 'डि' के स्थान पर हि' प्रत्यय की श्रादेश-प्राप्ति जानना चाहिये । इन तीनों प्रकार के प्रत्ययों के उदाहरण क्रम से उपरोक्त तीनों गाथाओं में दिये गये हैं। जिन्हें मैं क्रम से संस्कृत-हिन्दी अनुवाद सहित नीचे जद्धत कर रहा हूँ। 'सि-हे' के उदाहरण:-१) गिरिहे-गिरेः -पहाड़ से। (२) तरूद्दे-तरोः = वृक्ष से। गाथा का संपूर्ण अनुवाद यों हैं:-- संस्कृतः-गिरः शिलातलं, तरोः फलं गृह्यते निः सामान्यम् ॥
गृहं मुक्त्वा मनुष्याणां तथापि न रोचते अरण्यम् ।। अर्थ:-इस विश्व में सोने के लिये सुख पूर्वक विस्तृत शिला तल पहाड़ से प्राप्त हो सकता है और खाने के लिये बिना किसी कठिनाई के वृक्ष से फल प्राप्त हो सकते हैं। फिर भी आश्चर्य है कि अनेक कटिनाइयों से मरे हुए गृहस्थाश्रम को छोड़ करके मनुष्यों को बन-बास रुचि-कर नहीं होता हैं। अरण्यनिवास अच्छा नहीं मालूम होता है । 'भ्यत् = हुँ' के दृष्टान्त यों हैं:-१) तरुई - तरुभ्यः = वक्षों से
और (6) सामि स्वामिभ्यः =मालिकों से । यो कोनों पदों में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में 'भ्यस प्रत्यय के स्थान पर 'हुँ' प्रत्यय का आदेश-प्राप्ति हुई हैं । गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृतः-तरुभ्यः अपि वल्कलं फलं मुनयः अपि परिधान अशनं लभन्ते ।।
स्वामिभ्यः इयत अधिकं ( अग्गलउ' ) श्रादरं भृत्याः गृह्णन्ति ॥ २॥ हिन्दी:-जिम तरह से मुनिगण वृक्षों से छाल तो पहिनने के लिये प्राप्त करते हैं और फल खाने के लिये प्राप्त करते हैं; उसी तरह से नौकर भी ( अपनी गुलामी के एवज में ) अपने स्वामी से भी खाने