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*प्राकृत व्याकरण -
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अर्थ:-संस्कृत-धातु 'सृज' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यजन 'ज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'र' ग्यजनाक्षर की आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:-[१] निसृजति = निांसेरइवह बाहिर निकालता है अथवा वह त्याग करता हैं। [२] व्युत्सुजात = वोसिरह वह परित्याग करता है अथवा वह छोड़ता है। [२] युतुजाभि = घोसिरामि - मैं परित्याग करता हूँ अथवा मैं छोड़ता हूँ ।। ४-२२६ ।।
शकादीनां द्वित्वम् ॥ ४-२३० ।।
शकादीनामन्त्यस्य द्वित्वं भवति ।। शक । सकइ ॥ जिम् । जिम्मइ ।। लग । लग्गइ । मम् । भग्गइ । कृप । कुप्पइ ।। नश् । नस्सइ ॥ अट् । परिमट्टइ ॥ लुट् । पलोदृ ।। तुट् । तुइ ॥ नट् । नट्टइ ॥ सिव । सिव्वइ ।। इत्यादि ।।
र्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'शक' आदि कुछ एक धातुओं के अन्त्य ग्यजन के स्थान पर प्राकृत भाषा में उसी व्यजन को द्वित्व रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:-[१] शक्नोति सकारवह समर्थ होता है। [7] जेमति (अथवा जेमते)-जिम्मइवह खाता है अथवा वह भक्षण करता है। [D] लगात-लग्गइ = संयोग होता है, मिलाप होता है । [४] मगति मग्गइ = वह गमन करता है, वह चलता है। [4] कुप्यति कुप्पड़ मह क्रोध करता है। [१] नश्यति = नस्स = वह नष्ट होता है। [७] परिअदति = परिअड - वह परिभ्रमण करता है, वह चारों ओर घूमता है। [८] [4] प्रतिपलोइ = वह लोटता है।] तुटति-तुरबह झगड़ना है अथवा वह दुःख देता है। [१०] नटतिनइवह नृत्य करता है व नाचता है । सीव्यति-सिवइनह सीता है, वह सीवश करता है । इत्यादि रूप से अन्य उपलब्ध प्राकृत-धातुओं का स्वर भी इसी प्रकार से द्वित्व' रूप में समझ लेना चाहिये ।।४-२३० ।।
स्फुटि-चलेः ॥ ४-२३१ ॥ अनयोरन्त्यस्य द्वित्वं चा भवति ॥ फुइ । फुडह । चल्लइ । चलइ ॥
अर्थ:-विकसित होना, खिजना अयत्रा टूट ।। फूटना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्फुट' के अन्य अयजन 'टकार' के स्थान पर और 'चजना, गन करना' अथक संस्कृ-वातु 'चल' के अन्त्य व्यजन 'लकार' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकला में इस व्यतन को 'विश्व' रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) स्कुप्रति-कुट्टइ अथवा फुडइवह विकसित होता है, वह खिलता है अथवा वह टूटता है-३ह फूटता है । (२) च इति = बल्लइ अथवा चलइ-वह चलता है अथवा वह गारन करता है । ४-१३१
प्रादे मर्मीले ।। -२३२ ॥