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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * aroserorosterrorosotroteoremorrorrore..treeroetrotketro000000 'दकार' की प्राप्ति हो गई है, क्योंकि यह 'तकार' न तो वाक्य के आदि में है और न पद के हो आदि में है तथा न यह हलन्त अथवा संयुक्त ही है और इन्हीं कारणों से इस प्रथम तकार के स्थान पर 'कार' की आदेश प्राप्ति हो गई है। जब कि द्वितीय तकार हलन्त है और इसीलिये मूत्र संख्या ६-७७ से उम हलन्त 'तकार' का लोप हा गया है । यो सयुक्त 'लकार' की अथवा हलन्त तकार की स्थिति शौरसनीभाषा में होती है। इस बात को प्रदर्शित करने के लिये हो यह 'असम्भाविद सकार' उदाहरण वृत्ति में दिया गया है जो कि खास तौर पर ध्यान देने के योग्य है । इस प्रकार मंस्कृतीय तकार की स्थिति शौरसेनी-भाषा में 'दकार' की स्थिति में बदल जाती है; यहीं इस सूत्र का तात्पर्य है ।। ४-२६ ॥
अधः चित् ॥४-२६१ ॥
वर्णान्तरस्याधो वर्तमानस्य तस्य शौरसेन्यां दो भवति । क्वचिल्लल्यानुसारेण ॥ महन्दो । निच्चिन्दो । अन्देउ ।
अर्थ:-यह सूत्र अपर वाले सूत्र-संख्या ४-२६० का अपवाद रूप सूत्र है, क्यों कि बस सूत्र में यह बतलाया गया है कि संयुक्त रूप से रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' को प्राप्ति नहीं होती है; किन्तु इस सूत्र में यह कहा जा रहा है कि कहीं कहीं ऐसा भी देखा जाता है जब कि संयुक्त रूप से रहे हुए 'तकार' के स्थान पर भी 'दकार' की प्राप्ति हो जाती है, परन्तु इसमें एक शर्त है वह यह है कि संयुक्त सकार हलन्त व्यजन के पश्चात रहा हुधा हो । यहाँ पर 'पश्चात' स्थिति का व-बोधक शब्द 'अधम्' लिखा गया है । वृत्ति का संक्षिप्त स्पष्टीकरण यों है कि-'किसी हलन्त व्यञ्जन के पश्चात अर्थात प्रथमरूप से रहे हुए तकार के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में 'दकार' की आदेश-प्राप्ति हो जाया करती है। 'यह स्थिति कभी कभी और कहीं कहीं पर ही देखो जाती है इसी तात्पर्य का वृत्ति में 'लक्ष्यानुसारेण पद से समझाया गया है वहाहरण इस प्रकार है [१, महान्तः महन्दो सबसे बड़ा परम जयेष्ठ । [२] निश्चिन्ता मिच्चिन्द्रो निश्चिन्त । [2] अन्तः पुरै अन्ने उर-रानियों का निवास स्थान। इन तीनों पदाहरणों में 'न्त' अवयव में 'सकार' हलन्त ग्यजन 'नकार' के साथ में परवर्ती होकर संयुक्त रूप से रहा हुआ है और इसी लिये इप्त सूत्र के आधार से उक्त 'तकार' शौरसेनी-भाषा में 'दकार' के रूप में परिणत हो गया है। यह स्पष्ट रूप से ध्यान में रहे कि सूत्र संख्या ४-२६० में ऐसे 'तकार' को 'दकारस्थिति' का प्राप्ति का निषेध किया गया है । अतः अधिकृत-सूत्र उक्त सूत्र का अपवाद रूप सूत्र है। ॥५-२६१॥
वादेस्तावति ॥ ४-२६२ ॥ शौरसेन्याम् तावच्छन्ने आदेस्तकारस्य दो वा भवति ॥ दाव । ताव ॥ .