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शौरसेन्यामन्त्यान्मकारात् पर इदेतोः परयोर्गकारागमो वा भवति ।। हकारे 1 जुसंमिं, जुत्त मिणं । सरिसं मिं, सरिसमिखं । एकारं । किदं किमेदं । एवं शेदं एत्रमेदं ॥
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* प्राकृत व्याकरा *
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अर्थ :-- शौरसेनी भाषा में यदि शब्दान्त्य हलन्त 'मकार' हो और उस हलन्त मकार के आगे यादे 'इकार अथवा एकार' हो तो ऐसे 'इकार अथवा एकार' के साथ से विकल्प से हलन्त 'कार' की श्रागम-प्राप्ति होती हैं । इकार और एकार सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार क्रम से हैं: - (१) युक्तम् इदम् 'जुत्तं णमं श्रथवा जुत्ता=यह (बाल) सही है । (२) सदृशं इस सॉरेस णिमं अथवा सारसामर्ण = यह समान – (एक जैसा है। इन दोनों उदाहरणों में 'इम' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति हुई हैं; 'यो 'इकार' में 'पुकार' को आगमनाप्ति को समझ लेना चाहिये। यह आगम प्राप्ति वैकल्पिक है, अतः द्वितीय 'इ' के स्थान पर विणं की प्राप्ति नहीं हुई है। 'एका' संबंधी उदाहरण यों हैं - (१) किं एतत् = किं पढ़ें अथवा किमे = यह क्या है ? ( १ ) एवं एतत् एवं पादं अथवा एक्मे यह ऐसा है। इन उदा हरणों में 'एदं' के स्थान पर विकल्प से 'द' रूप की प्राप्ति हुई हैं; या एकार' में 'णकार' की आगमप्राप्ति को विकल्प से जान लेना चाहिये ।। ४-२७६ ।।
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एसो ॥
एवार्थे य्येव ॥
४- २८० ॥
एवार्थे व इति निपातः शौरसेन्यां प्रयोक्तव्यः || मम य्येव बम्भणस्स | सोम्येव
अर्थः — 'निश्चय वाचक' संस्कृत-अव्यय 'एव' के स्थान पर अथवा 'एय' के अर्थ में शौरसेनी'भाषा में 'व्येव' अध्यय रूप का प्रयोग किया जाना चाहिये। जैसे – (१) मम एव ब्राह्मणस्य ममय्यष बम्भणम=मुझ ब्राह्मण का ही। (२) स एव एव: सोयेष एसो वह ही यह है। यों इन दोनों उदाहरणों में 'एच' के स्थान पर यंशेव की प्राप्ति हुई है ।। ४- ५० ।।
हज्जे
वाहवाने || ४-२८१ ॥
शौरसेन्याम् चेट्याह्वाने हजे इति निपातः प्रयोक्तव्यः ।। हज्जे चदृरिके ॥
अर्थ:- दासो को संबोधन कांसे समय में अथवा बुलाने के समय में शौरसेनी भाषा में 'हजे' श्रध्यम का प्रयोग किया जाता है। जैसे- अरे ! चतुरिके । जे चतुरिके = अरे चतुर दासी ! बुद्धिमान दासो || ४-२८९ ॥
हमारा विस्मय - निर्वेदे ॥ ४-२८२ ॥