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* श्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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(१३) सूत्र-संख्या ४२८२ में यह कथन किया गया है कि-'पाश्चर्य और खेद प्रकट करने के अर्थ में शौरसेनी भाषा में 'हीपणहें ऐसे शब्द रूप अव्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-- अहो ! जीवन्त घस्सा मम जममी = हामाणहे जीवन्त पश्चा में जणणी= आश्चर्य है कि मेरी माता मेरे पर जीवन पर्यत के लिये प्रेम-भावना रखने वाली है। यह कथन 'राक्षस' नामक एक पात्र उदात्तराघव नामक नाटक में व्यक्त करता है। यों होमागाई' अव्यय विस्मय-अर्थ में कहा गया है। निर्वेद-खेद अर्थक अव्यय के रूप में प्रयुक्त किये जाने वाले 'ही माण हे' अव्यय का उदाहरण 'विक्रान्त. भीम नामक नाटक से श्रागे नद्धृत किया जा रहा है। -हा! हा !! परिवान्ताः वयम् एतेन निजविवेः दुर्व्यवसितन - हामाया पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधिको दुवपार्शवण- अरे ! अरे ! बड़े दुःन्न की बात है कि हम इम हमारे भाग्य के दुर्व्यवहार से- ( खोटे नकदीर के कारण से) अत्यन्त परेशान हो गये हैं ।। यह उस एक 'राक्षस' पात्र के मुंह से कहलाई गई है।
(२४) सूत्र-संख्या ४.६८३ में यह वर्णन किया गया है ।क-शोर सनी में निश्चय-मर्थक मस्कृतअव्यय 'मनु' के स्थान पर 'णं अव्ययकी प्रामि होती है । जैसे:-ननु अक्सर-उपसरणायाः राजान:णं अयशलापशप्पणीया लायाणो - निश्चय ही राजाओं । की संवा में ) समयानुसार ही (अवसरों की अनुकूलता पर ही ) जाना चाहिये ।।
(४) सूत्र-संख्या ४-२८४ में यह उल्लेख किया गया है कि-शोर सनी में हर्ष-व्यक्त करने के अर्थ में 'अम्माई' ऐसे शल: रूप अध्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-अहो !! एतस्यै मूर्मिलायै सुपरिगठितः भषान् अम्महे !! एआए शुमिमलाए पलिगहिदे भर्ष - आपने इस सर्मिला के लिये ( इस श्राभूषण विशेष का) अच्छा गठन किया है; यह परम हवं की बात है।
(२५) सूत्र-संख्या ४-२८५ में यह व्यक्त किया गया है कि-शौरसेनी-भाषा में जब कोई विदूषक (भांड आदि मसखरं ) अपना हर्ष व्यक्त करते हैं, तब वे 'ही हो' ऐसा शब्द बोलते हैं और यह शब्द अव्यय के अन्तर्गत माना जाता है। जैसे:-आ हा हा ! संपन्नाः मम मनोरथाः प्रियवयस्याय-हीही !! संपन्ना में मणोलधा पियषयस्सस्स = अहाहा!! ( बड़े ही हर्ष की बात है कि) प्रिय मित्र के लिये मेगे जो मन की कल्पनाएं थीं, वे सब को मय (सानंद) मम्पन्न हुई हैं।
(PF) मूत्र-मस्या ४.८६ में मव-मामान्य-सूचना के रूप में यह संविधान किया गया है कि शेष भी विधान 'शौरसेनी भाषा के लिये प्राकृत-भाषा के संविधान अनुसार ही जानना । यों यह फलि. सार्थ हुआ कि-मागध-भाषा के लिये भी वे सभी नियमोपनियम लागू पड़ते हैं, जो कि प्राकृत-भाषा के लिये तथा शौरसेनी भाषा के लिये लिखे गये हैं। इस बात की संपुष्टि के लिये इसी सूत्र को वृत्ति में ऊपर शौरसेनी भाषा के लिये लिखित सूत्र-संग्ख्या ४-२६० से लगाकर ४.२८६ तक के सूत्रों को उदाहरण पूर्वक उदधृत किये हैं।