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*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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संस्कृत:-अगलितस्नेह-निर्धत्तानां, योजनलचमपि जायताम् ।
वर्षशतेनापि यः मिलति, सखि ! सौख्याना स स्थानम् ॥११॥ अर्थ:-जिनका परसर में प्रेम नहीं टूटा है और यदि वह अस्त्रंड है तो चाहे वे (प्रेमी) लाख योजना भी दूर चले जाय; (तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं है, क्योंकि जब कभी चाहे सौ वर्षों में भी उनका मिलना होता है; तो भी हे सखि ! वह (मिलना) सुखों का ही स्थान होता है।
प्रश्न.-मूल सूत्र में "पुल्लिंग में ही ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तर:-अकारान्त में नपुसकलिंग वाले भी शब्द होते हैं और उनमें प्रथमो विमक्ति के एक वचन में "" प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है इसलिये “अकारान्त पुल्लिग" शब्द का उल्लेख किया गया है। अकारान्त नपुसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में केवल दो प्रत्यय ही होते हैं; जो कि इस प्रकार है:-(१) "3" और (२) "लुक-0" । यो "ओ" प्रत्यय का निषेध करने के लिये "पुसि" ऐसे पद का मूल सूत्र में प्रदर्शन किया गया । उदाहरण के रूप में जो दूसरी गाथा उद्धत की गई है, उसमें "अंगु, मिलिउ, सुरड और समन्तु "आदि शब्द प्रथमा विभक्ति के एक वचन में होने पर भी ये शय्द 'अकारान्त नपुसकलिग वाले हैं और इसीलिय इनमें "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होकर "3" प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये ! गाथा का संस्कृत-अनुवाद हिन्दी सहिन इस प्रकार है:संस्कृतः - अंगः अंमं न मिलितं, सखि ! अधरण श्रधरः न प्राप्तः ।।
प्रियस्य पश्यन्त्याः मुख-कमलं, एवं सुरतं समाप्तम् ॥२॥ हिन्दी:- हे सखि! अंगों से अंग भी नहीं मिल पाये थे, और होट से होठ भी नहीं मिला था; तथा प्रियतम के मुख-कमल को (बराबर) देख भी नहीं पाई थी कि (इतने में ही) हमारा रति कोड़ा नामक खेल समाप्त हो गया ।। ४-३३२ ॥
॥ एट्टि ४-३३३ ।। अपभ्रशे अकारस्य टायामेकारो भवति ॥ जे महु दिएणा दिअहड़ा दइए पवसन्तेण ॥
ताण गणन्तिएँ अंगुलिउ जज्जरिवाउ नहेण ॥१॥ अर्थ:-अपभ्रश भाषा में अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्तव्य "टा" के स्थान पर (वैकल्पिक रूप से) "." प्रत्यय की भावेश प्राप्ति होती है। जैसा कि गाथा में आये हुए
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