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पद "दइएँ" से विदित होता है | दयितेन =दइएँ = पति से || मूल गाथा का संस्कृत अनुवाद पूर्वक हिन्दी अर्थ इस प्रकार से है:
* प्राकृत व्याकरण *
संस्कृतः ये मम दत्ताः दिवसाः दयितेन प्रचसता 11 (मम) अंगुल्यः जर्जरिताः नखेन ॥
तान् गणयन्त्याः
हिन्दा:- विदेश जाते हुए प्रियतम पत्तिदेव ने (पुनः लौट आने के लिये। मुझे जितने दिनों की बात कही थी; उन दिनों की नख से गिनते हुए (मेरी) अंगुलियाँ ही घिस गई है; ( परन्तु पतिदेव विदेश से नहीं लौटे हैं ।) १४-३३३॥
डि नेच्च ॥ ४-३३४ ॥
अपभ्रंशे अकारस्य ङिना सह इकार एकारथ भवतः ॥ सावरू उपरि तखु घरइ, तलि धन्लइ स्थाई ॥ साम सुभिच्चु विपरिहर, संमाइ खलाई ॥१॥ तले धन्लाइ ।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में सप्तमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्तभ्य प्रत्यय "डि" के स्थान पर "इकार" और "एकार" प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर अकारान्त शब्दों के अन्त में रहे हुए 'थ' स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् शेष व्यञ्जनान्त शब्द में "इकार" की संयोजना की जाती है। जैसा कि गाथा में दिये गये पत्र "तलि" - 'तले" से जाना जा सकता है। इस "ताल" में सप्तमी बोधक प्रत्यय "इकार" की प्राप्ति हुई है | गाथा का संस्कृत और हिन्दी भाषान्तर कम से इस प्रकार है:
संस्कुतः - सागरः उपरि तृणानि धरति तले क्षिपति रत्नानि ॥ स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति, संमानयति खलान् 11
हिन्दी:- समुद्र घास आदि तिनकों को तो ऊपर सतह पर धारण करता है और बहुमूल्य रत्नों को ठेठ नीचे वैद में रखता है। (तदनुसार यह सत्य ही है कि) स्वामी अच्छे सेवकों को तो त्याग देता है. और दुष्ट ( सेवकों) का सन्मान करता है । यहाँ पर 'तले' पद के स्थान पर अपभ्रंश में 'तलि' पद का प्रयोग किया गया है। 'ए' कार पक्ष में 'तले' भी होता है ।। ४-३३४ ।।
भिस्येद्वा ॥ ४- - ३३५ ॥
अपभ्रंशे अकारस्य मिसि परे एकाशे वा भवति ॥