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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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अथ अपभ्रंश-भाषा-व्याकरण-प्रारंभः
स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रशे ॥ ४-३२६ ॥ अपभ्रशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वराः भवन्ति ।। कच्चु । काच्च ।। वेण । वीण ॥ बाह : बाहा बाहु ।। पछि । पिटि । पुद्धि ॥ तणु। तिणु । तृणु । सुकिदु । सुकिओ । सुकृत् ॥ किनो । किलिनमो || लिह 1 लीह । लेह ॥ गरि । गोरि ॥ प्रायोग्रहणावस्यापनशे विशेषो बन्यते, तस्यापि क्वचित् प्राकृतवत् शौरसेनी वच्च कार्य भवति ॥
__ अर्थः-अपभ्रंश-भाषा में संस्कृत-भाषा के शब्दों का स्पान्तर करने पर एक ही शरद में एक ही म्वर के स्थान पर प्रायः विभिन्न विभिन्न स्वरों की प्राप्ति हुआ करती है और यो विभिन्न स्वर-प्राप्ति से एक ही शब्द के अनेक रूप हो जाया करते हैं । क्रम से उदाहरण इस प्रकार से हैं:संस्कृत-शब्द = अपभ्रंश-रूपान्तर
हिन्दी (१) कृत्य - कच्चु और काद
- काम। (२) वचन = वेण और वीण
= वचन। (३) राहु = बाह, बाहा और बाहु
सुजा। (४) पष्ठ - पट्टि, पिट्टि और पुट्टि
- पाठ (५) तृण = तणु, तिगु और मृणु
= तिनका। (६) सुकृत= सुकिदु और मुकिमो तथा सुकूदु,
- अच्छा काम । (७) क्ल = किन्नश्रो तथा क्रिलिन्नो
=गोल, भीगा हुआ। (८) लेखा= लिइ, लीह और लेह
= लकीर चिन्ह । (१) गौरी: गरि और गोरि
- सुन्दरी अथवा पार्वती ।। इन उदाहरणों से विदित होता है कि अपभ्रंश-भापा में एक ही स्वा के स्थान पर अनेक प्रकार के स्वसें की प्राप्ति हुई है । मूल सूत्र में जो 'प्रायः' 'अन्यय ग्रहण किया गया है, उप्त का तात्पर्य यही है कि अपभ्रंश-भाषा में स्वर-सम्बन्धी जो अनेक विशेषताऐं रही हुई हैं, उनका प्रदर्शन आगे श्राने वाले सूत्रों में किया जायगा । तदनुसार अपभ्रंश-भाषा में शब्द-रचना-प्रवृत्ति कहीं कहीं पर प्राकृत्त-भाषा के अनुसार होती है और कहीं कहीं पर शौरसेनी भाषा के समान भी हो जाया करती है । यह सब मागे यथा स्थान पर दशोया जावेगा; इस तात्पर्य को 'प्रायः' अव्यय से मूल-सूत्र में समझाया गया है ॥ ४-३२६ ।।
स्यादौ दीर्घ-हृस्वौ ॥ ४-३३० ॥