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* प्राकृत व्याकरण *
कहीं कहीं पर व्याकरण से सिद्ध हुप प्राकृत-शब्दों में भी तृतीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर की प्राप्ति हो जाती है और चतुर्थ अक्षर के स्थान पर द्वितीय-अक्षर हो जाता है। जैसे:-प्रतिमा = पडिमा=पटिमा - मूर्ति अथवा श्रावक साधु का धर्म विशेष । (२) दंष्ट्रा-डाढा ताठा = बड़ा दांत अथवा दांत विशेष ॥ ४-३२५ ।।
रस्य लो वा ॥ ४-३२६ ॥ चूलिका-पैशाचिके रस्य स्थाने लो वा भवति । पनमथ पनय-पकप्पित-गोली-चलनग्ग-लम्ग-पति-विबं ।। तससु नखतप्पनेसु एकोतस-तनु-थलं लुर्द । नवन्तस्य य लीला-पातुक्खेवेन कपिता वसुथा ।
उच्छल्लन्ति समुदा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ॥ अर्थ:-चूलिका-पैशाचिक-भाषा में 'रकार' वर्ण के स्थान पर 'लकार वर्ण को विकल्प से श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसाकि उपरोक्त गाथा में '(३) गौरागगोलो, (२) चरण - चलन, (३) तनु-धुर-तनुभलं, (8) रुद्रम् = लुई और हरं = हल' पदों में देखा जा सकता है। इन पांच पदों में 'रकार' वर्ण की स्थान पर 'लकार' वर्ग की श्रादेश प्राप्ति की गई है। उपरोक्त गाथाओं की संस्कृतछाया इस प्रकार से है:
प्रणमत प्रणय-प्रकुपित-गोरी-चरणान-लग्न-प्रतिबिम्बम् । दशसु नख-दर्पणेषु एकादश तनुधरं रुद्रम् ॥ १ ॥ नृत्यतश्च लीलापादोत्क्षेपेण कविता वमुधा ।
उच्छलन्ति समुद्राः शैला निपतन्ति तं हरं नमन ।। २ ।। अर्थ:-उस 'हर-महादेव' को तुम नमस्कार करो, जो कि प्रेम क्रियाओं से कोधित हुई पार्वती के चरणों में ( उसको प्रसन्न करने के लिये ) झुका हुआ है और ऐसा करने से पार्वती के पैरों के दश ही नख-रूपी दश-दर्पणों में जिस ( महादेव } का प्रतिबिम्म पड़ रहा है और यों हो (महादेव) इस नखों में दश शरोर वाला प्रतीत हो रहा है और ग्यारहवां जिस (महादेव । का खुद का (मूल) शरीर है, इस प्रकार जिस (महादेव) ने अपने ग्यारह (एकादश) शरीर बना रखे हैं। ऐसे रु-शिव को तुम प्रणाम करो॥१॥
"विलक्षण' नृत्य करते हुए और कीड़ा-वशात पैरों को अचिंत्य ढंग से फेंकने के कारण से जिमने पृथ्यो को भी कंपायमान कर दिया है और 'नत्य तथा क्रीड़ा' के कारण से समुद्र भी उछल रहे हैं, एवं पर्वत भी टूट पड़ने की स्थिति में हैं। ऐसे महादेव को तुम नमम्कार करो ।। २॥ ४-१२६