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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .00000000000000*astrator0000000000000000000000000ttskotk0000000000000 दूरात - दूरादु = दूर सं । प्राकृत भाषा में पंचमी विमति के एकवचन में सूत्र संख्या ३-८ से 'चो, दो, दु, हि, हिन्तो और लुक' ऐसे छह प्रत्ययों को आदेश-प्राप्ति होती है। किन्तु शौरसेनी भाषा मे तो 'पादो और श्रादु' ऐसे दो प्रत्ययों को ही श्रादेश प्रामि जानना चाहिये । ४-२७६ ।।
इदानीमो दाणि ॥ ४-२७७ ॥ शौरसेन्यामिदानीमः स्थाने हागि इत्यादेशो भवति ॥ अनन्तर करणीयं दाणि आणवेदु अथ्यो । व्यत्ययात् प्राकृते ऽपि । अन्नं दाणि बोहिं ॥
अर्थ:--मुस्कृतीय अव्यय 'इदानीम्' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में कंवल दाणि' ऐसे शब्द रूप की आदेश प्रानि होती है। जैसे:-अनन्तर करणाय इदानाम, आज्ञापयतु हे आर्य ! अनन्तर-करणाय द्वाणि आण अय्यो - हे महाराज ! अब श्राप इसके बाद में करने योग्य ( कार्य का ) आदेश फरमा' । प्राकृत-भाषा में 'इदानीम्' के स्थान पर तीन शब्द रूप पाये जाते हैं:-[१) एपिह, (२) एत्ताहे
और (३) आणि । किन्तु शौरसेनी-भाषा में तो केवल दाणि' रूप की ही उपलब्धि है । कहीं-कहीं पर 'दाणि और दाणी' रूप भी देखे जाते हैं ।
प्राकृत-भाषा में ऐसा संविधान पाया जाता है कि संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए स्वरों का अथवा व्यजनों का परस्पर में 'व्यत्यय' अर्थात आगे का पोछे और पीछे का श्रागे होकर संस्कृतीयशब्द प्राकृतीय बन जाते हैं । जैसे:--अन्य इदानीम् बोधिम = अन्नं दाणि षादि = अब दूसरे को शुद्ध धर्मशान को (बोधिको ) ( समझायो ) ।। ४.२७७ ।।
तस्मात्ताः ॥४-२७८ ।। शौरसेन्यां तस्माच्छब्दस्य ता इत्यादेशो भवति ॥ ता जाब पविसामि । ता अलएदिणा माणेण ॥
अर्थ:--'उम कारगण से' अथवा 'उपसे' अर्थक संस्कृत-पद 'तरमात्' के स्थान पर शौरसेनीभाषा में 'ता' शब्द रूप को आदेश-प्रानि होनी है । जैसे:--नस्मात् यावत प्रविशाम = ता जाप पविसामिय जस कारण से तब तक मैं प्रवेश करता हूँ। तस्मान अलम एतेन मानेन = ता अलं पणा माणेण-उम कारण से इस मान से (अभिमान में]--अब बम करी अर्थास अब अमिमान का त्याग कर दी यो 'ता' शब्द का अर्थ ध्यान में रखना चाहिये ।। ४.२७ ।।
मोन्त्याएणो वेदे तोः ॥४-२७६ ॥