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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ) mernorsetorrtooterestoratoonservanswevartamoortoot**okmom
भवभगवतोः ॥४-२६५ ॥ आमन्व्य इति निवृत्तम् । शौरसेन्यामनयोः सौ परे नस्य मो भवति ॥ कि एत्थ भवं हिदएण चिन्तेदि । एदु भई । समग्णे भगवं महबीर ।। पज्जलिदा भय हुदामणो । क्वचिदून्यत्रापि मघवं पागलासणे । संपाइअवं सीसी । कय । करमि काहं च ।।
अर्थ:-'संबोधन संबंधी विचारणा को तो समाप्ति हो गई है; ऐमा तात्पर्य वृत्ति में दिये गये 'निवृत्तम्' पद से जानना चाहिये।
'भक्त' तथा भगवत' शब्द के प्रथमा विभक्ति के एक वचन पाचक प्रत्यय 'सु = मि' परे रहने पर तैयार हुए 'भवान तथा भगवान' पदों के अन्त्य नकार के स्थान पर हनन्न 'मकार' को अर्थात् अमुस्वार की प्राप्ति होतो है श्रीर प्रथमा विभक्तिवाचक एक वचन के प्रत्यय का लाप हा जाना है। ऐपा शौरसेनी भाषा में जानना चाहिय; तदनुसार भवान् पद का 'भव' रूप हाता है और भगवान् पद का रूपान्तर 'भयवं' अथवा 'भगवं' हाता है विशेष उदाहरण इस प्रकार है:--'१) किं अत्र भवान् हृदयेन चिन्तयति कि एत्थ भवं हिदा चिन्तदि-क्या इस विषय में पाप हदय मे चिन्तन करते है। (२) एतु भवान् = एदु भवं-आप जायें। (२) श्रमण: भगवान् महावारसमण भगवं महबीरेश्रमण-महासाधु भगवान महावार ने । (४) प्रचलितः भगवान हुताशनः = परजालदा. भयत्र हुदासणी उज्ज्वल रूप से जलता हुआ भगवान् अग्निदेव । इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि 'मन्नत'
और 'भगवत्' शब्दों के प्रथमान्त एक वचन में बने हुए संस्कृतीय पद 'भवान् तथा 'भगवान' का शौरसेनी भाषा म क्रम से 'भवं और भगव' (अथवा भयवं) हो जाता है।
कभी कभी ऐसा भी देखा जाता है जब कि अन्य पदों में भी प्रथमा विभक्त के एक वचन में अस्य हसन्त 'नकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'अनुस्वार का प्रामि हा जाता है तथा प्रथमा-विभक्त के एक वचन के प्रत्यय 'सु-सि' का लोप हो जाता है । जेसे:-मघवान् पाक शासनः = मघवं पाग सासणे-देवराज इन्द्र ने । यहाँ पर प्रथमा विभक्त के एक वचन में मघवान का कमान्तर 'घ' बतलाया है । दूसरा उदाहरण यों है:--संपादितवान् शिष्या संपाइयं मीसी-बढ़ाय हुए शिष्य ने यहाँ पर भी प्रथमा विभक्ति के एक वचन पद 'संपादितवान' का रूपान्तर शौरसेनी भाषा में 'संपाइअवं' किया गया है । (३) कृतवान् = काययं = मैं करने वाला हूँ अथवा मैं करूँगा यो हलन्त. 'नकार' कं स्थान पर प्रथमा-विभक्ति एक वचन में अनुस्वार को प्राप्ति का स्वरूप जानना ।। ४-२६४ ।।
नवा यौँ य्यः ॥४-२६६ ॥ शौरसेन्यां यस्य स्थाने व्यो वा भवति ॥ श्रययउत्त पथ्याकुलीकम्हि । यसो । पक्षे । अज्जो । पज्जाउलो । कज्ज-परवसो ।