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* त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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वह प्राण धारण करता है अथवा वह खाता है। यहाँ पर 'बल' धातु प्राण धारण करने के अथ में निश्चितार्थं वालो होती हुई मां 'खान' के अर्थ में मां प्रयुक्त हुई हैं । (२) कलह =संख्यानं करोति अथवा जानाति = वह आवाज करता है अथवा वह जानता हूँ। यहां पर कल बातु आवाज करना श्रथवा गणना करना श्रथ में सुनिश्चित होता हुई भी जानना अर्थ को भी प्रकट कर रही है । (३) रिगइ = प्रविशति अथवा गच्छति = वह प्रवेश करता है अथवा वह जाता है। यहाँ पर 'रिंग' घातु प्रवेश करने के अर्थ में विख्यात होती हुई भी जाना अर्थ को प्रदर्शित कर रही है ( ४ ) संस्कृत धातु 'कांक्षू' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'वम्क' धातु रूप की श्रादेश प्राप्ति होती हैं । यो 'बम्फ' धातु के दो अर्थ पाये जाते हैं: - एक तो 'रुद्रा करना' और दूसरा खाना भोजन करना | | जैसे:-- वम्फड़ - इच्छति अथवा खाइति = वह इच्छा करता है अथवा वह खाता है (५) संस्कृत धातु 'फक्त' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'क' वातु रूप का आदेश प्राप्त होकर इसके भी दो अर्थ देखे जाते हैं (अ) नाचे जाना और (ब) विलम्ब करना, दील करना। इसका क्रियापदीय उदाहरण इस प्रकार है: - थकाइ नीचां गतिं ajita श्रथवा लिम्बयति - बहनांचे जाता है अथवा वह विलम्ब करता है वह ढोल करता है (६) प्राकृत धातु 'कब' के तीन अथ देखे जाते हैं: - ( अ ) विज्ञाप करना, (ब) उलइना देना, और (स) कहनां-बोलना। जैसे:-झंखाड़ = ( अ ) विलपति, (ब) उपालभते, (H) भाषते यह विलाप करता है, वह उलहना देता है अथवा वह बोलना है- कहता है । यो संस्कृत धातु 'बिलप और उपालम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'ख' वा रूप को आदेश प्राप्ति विकल्प से होता है। (७) 'पडिवाल' धातु का अर्थ 'प्रतीक्षा करना' है, परन्तु फिर भी 'रक्षा करना' अथ में भा प्रयुक्त होती है । जैसे:-- पाडवालेइ = प्रतक्षिते अथवा रक्षति = वह प्रतक्षा करता है अथवा वह रक्षा करता है । यों प्राकृत भाषा में ऐसी श्रनेक धातुएं हैं जो कि वैकल्पिक रूप से दो दो अर्थों को धारण करती है। प्राकृत भाषा में ऐसी भी कुछ धातु हैं जो कि उपसर्ग-युक्त होने पर अपने निश्चित अर्थ से भित्र अर्थ को ही प्रकट करती है और ऐसी स्थिति वैकल्पिक नहीं हो कर 'नित्य स्वरूप वाली हैं। इस संबंध में कुछ एक धातु श्रों के उदाहरण यों हैं:- ( १ ) यहरइ - युध्यते = वह युद्ध करता है । यहाँ पर 'हर' धातु में 'प' उपवर्ग जुड़ा हुआ है और निश्चित अर्थ 'युद्ध करता' प्रकट करता है । (?) संहरइ = संघृणोति = वह संवरण करता है- वह अच्छा चुनाव करता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'सं' उपसर्ग है और इससे अर्थ में परिवर्तन आगया है । अहर = सदृशी भवति = वह उसके समान होता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'अणु' उपसर्ग है, जिससे अर्थ-भिन्नता उत्पन्न हो गई है । (४) नीहरड़ = पुरवोत्सर्ग करोति = वह मल त्याग करता है वह टट्टी फिरता है । यहाँ पर भी 'हर' धातु में 'नी' उपसर्ग को प्राप्ति होने से अर्थान्तर दृष्टि गोचर हो रहा है । (५) विहरह = कीडति = वह स्पेलता है वह क्रीड़ा करता है । यहाँ पर 'हर' धातु में 'त्रि' उपसर्ग की संयोजना होने से 'विचरना' अर्थ के स्थान पर 'खेलना' अर्थ उत्पन्न हुआ है । आहरण = खादति खाता है अथवा वह भोजन करता है । यहाँ पर चा उपसरां होने से 'हरण करना' अर्थ नहीं होकर 'भोजन करना' अर्थ उद्भूत हुआ है। (७) पार्डहरह = पुन:
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