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* प्राकृत व्याकरण *
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स्वराणां स्वराः ॥४-२३८ ॥ धातुपु स्वराणां स्थाने बस बहुलं भवन्ति ॥ हवइ । हिवइ ।। चिणा । चुणह ॥ सदहणं । मइहाणं ।। धावई । धुबह ॥ रुवइ । रोवइ ।। क्वचिनित्यम् । देह ॥ लेइ । बिहेह । नासइ ।। आर्षे । बेमि ॥
अर्थ:-सम्यत-भाषा की धातुओं में रहे दुए स्वरों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में अन्य स्वरों की आदेश-प्राप्ति बहुतायत रूप से हुआ करती है । जैसे:-- (१) भवति हवद और हिवड-वह होता है: (२) चयति चिणइ और चुणइ = वह इकट्ठा करता है । (२) श्रद्धानं - सइहणं और सदहाणं = श्रद्धा अथवा विश्वास । (४) धारतिम्धापद और धुषद - वह दौड़ता है। (५) रोमिति - रुबह और रोषइ = वह रोता है, वह रुदन करता है। इन उदाहरणों को देखने से विदित होता है कि संस्कृतोय धातुओं में अवस्थित स्वरों के स्थान पर प्राकृत भाषा में विभिन्न स्वरों को आदेश प्राप्ति हुई है। यों अन्य धातुओं के संबंध में भी स्वयमेव कल्पना कर लेना चाहिये ।
कभी कभी ऐसा भी पाया जाता है कि संस्कृतीय धातुओं में रहे हुए स्वरों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में नित्य रूप से अन्य स्वर की उपलब्धि श्रादेश रूप से हो जाती है। जैसे:-दवाति (अथवा दत्ते ) - वह देता है, वह सौंपता है। लाति = लेड्= वह लेता है अथवा प्रहण करता है। विभतिबिहेइ = वह उरता है, वह भय खाता है । नत्यति - नासेइ-वह नाश पाता है अथवा वह नष्ट होता
आर्ष प्राकृत में भी स्वरों के स्थान पर अन्य स्वरों की प्राप्ति देखी जाती है। जैसे-जपीमि चोम = मैं कहता हूं अथवा प्रतिपादन करता हूं ।। ४-२३८ ।।
व्यञ्जनाददन्ते ॥ ४-२३६ ॥ घ्यञ्जनान्ताद्धातोरन्ते अकारो भवति ॥ ममइ । हसइ । कुणइ । चुम्बइ । भणइ । उघसमइ । पावइ । सिञ्चइ रुन्धइ । मुसह । हरइ । करइ ।। शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति ॥
अर्थ:-जिन संस्कृत धातुओं के अन्त में हलन्त व्यञ्जन रहा हुआ है, ऐसी हलन्त व्यञ्जनान्त धातुओं के प्राकृत रूपान्तर में अन्त्य हलन्त व्यञ्जन में विकरण प्रत्यय के रूप से 'अकार' वर की आगम प्राप्ति हुआ करती है; यो व्यजनान्त धातु प्राकृत भाषा में अकारान्त धातु बन जाती हैं तथा तत्पश्चात इसी रात से बनी हुई अकाराम्त प्राकृत धातुओं में काल-बोधक प्रत्ययों को संयोजना की जाती है । जैसे:-भम् = भम । हस - हम । कुम् = कुण और घुम्ब-चुम्ब इत्यादि । क्रियापदीय उदाहरया क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) अमातभम - वह घूमता है, बद परिभ्रमण करता है । (२) हसति = हसायह