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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .0000000000000000000000000000000000000000000000000000
ध्याहरतेः कर्म-भावे वाहिप्प इत्यादेशो वा भवति ॥ तत्संनियोगे क्यस्य च लुक ॥ वाहिप्प३ । बाहरिज्जइ ।
अर्थः–बोलना, कहना अथवा अाझान करना' अथक संस्कृत धातु 'ज्या + हू' का प्राकृतरूपान्तर 'बाहर' होता है; परन्तु कर्मणि-भाव-प्रयोग में उक्त धातु 'न्याहू' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'वाहिप्प' ऐसे धातु रूप की विकला से आदेश प्राप्ति होती है तथा ऐमो वैकल्पिक श्रादेश प्रानि होने पर प्राकृत-भाषा में कमणि-भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईअथवा इज' का लोप हो जाता है। यो जहाँ पर 'ईश्र अथवा इज' प्रत्ययों का लोप हा जायगा वहाँ पर 'ग्याह' के स्थान पर 'वाहिप' का प्रयोग होगा और जहाँ पर ईअ अधया इज' का लोप नहीं होगा वहाँ पर 'घ्या. के स्थान पर 'वाइर' गायोगः -याविरते-वाहिप्पड़ अथवा पाहरिजड़ - बोला जाता है, अथवा कहा जाता है अथवा आह्वान किया जाता है ॥ ४-५५ ॥
प्रारमेराढप्पः ॥४-२५४ ॥ श्राउ पूर्वस्य रमेः कर्म-भावे आढप्प इत्यादेशो वा भवति । क्यस्य च लक ॥ बाढप्पइ । पक्षे । आढवीश्रइ ॥
अर्थ:-श्रा' उपसर्ग सहित 'रम्' धातु संस्कृत भाषा में उपलब्ध है, इसका अर्थ 'प्रारम्भ करना, शुरू करना ऐसा होता है । इस 'श्रारंम्भ' धातु को प्राकृत-रूपान्तर 'श्राव होता है परन्तु कर्मणि-मावे-प्रयोग में संस्कृत-धातु 'पारम' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'प्रादप्प' ऐसे धातु रूप की श्रादेश-प्राप्ति विकल्प से हो जाती है तथा ऐमी वैकल्पिक श्रादेश पारित होने पर कर्मणि-भावे-प्रयोग अथक प्रत्यय 'ईअ अथवा इज्ज' का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है। यों जहाँ पर 'ईन अथवा इज' प्रत्ययों का लोप हो जायगा वहाँ पर 'श्रा + रम' के स्थान पर 'आदाप' का प्रयोग होगा और जहाँ पर 'ईश्र अथवा इज्ज' प्रत्ययों का लोप नहीं होगा वहाँ पर 'श्राग्भ' के स्थान पर 'बाढव' धातु रूप का उपयोग किया जायगा । जैसेः-आरभ्यते आठप्पड़ अथवा आढषीअइ = प्रारंभ किया जाता है, शुरु किया जाता है ॥४-५४ ॥
स्निह-सिचोः सिप्पः ॥ ४-२५५ ॥ अनयोः कर्म-भावे सिप्प इत्यादेशो भवति, क्यस्य च लुक् ।। सिप्पइ । स्नियते । सिच्यते बा ॥
अर्थ:-'प्रीति करना, स्नेह करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्निह' के और 'सींचना, छिटकना' अथक संस्कृत-धातु 'सिच्' के स्थान पर कर्मणि-भावे प्रयोगार्थ में प्राकृत रूपान्तर में 'सिम्प' धातु रूप