________________
में राकृत व्याकरण **
[ ४०६ ]
स्त्रिदि प्रकाराणामन्त्यस्य द्विरुक्तो जो भवति ॥ सन्मङ्ग-मिज्जिरीए । संपज्जइ । खिज्जा ।। बहुवचनं प्रयोगानुपरणार्थम् ।।
अर्थः--'पसीना होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्विद्' तथा 'संपन्न होना, सिद्ध होना, मिलना' अर्थक संस्कृत धातु संपद्' और 'खेद् करना, अफसोस करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'खिदु' इत्यादि ऐसी धातुओं के अन्त्य व्यञ्जन 'द' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में द्वित्व रूप से 'ज' व्यजन की आदेश प्राति होती है। जैसे:- सर्वाङ्ग स्वेदनशीलायाः - समस्य-सिजिए-सभी अंगो में पसीने वाली का । संपद्यते-संपज्जइ = वह संपन्न होता है अथवा वह मिलता है । खिद्यति = खिजइ-वह खेद करता है अथवा वह अफसोस करता है।
मूल सूत्र में स्विदा' ऐसे बहुवचनान्त पद के प्रयोग करने का कारण यही है कि इस प्रकार की द्वित्व 'न्ज' वालो धातुएँ प्राकृत-भाषा में अनेक हैं, जो कि 'दकारान्त' संस्कृत-धातुओं से संविधानानुसार प्राप्त हुई हैं ॥ ४-२२४ ।।
ब्रज-नृत-मदांच्चः ॥४-२२५॥
एषामन्तमस्य द्विरुक्तची भवति ।। वनइ । नचइ । मच्चाई ।
अर्थ:-'जाना, गमन करना अर्थक संस्कृत-घातु 'ब्रज' 'नाचना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नृत' और 'गर्व करमा' अर्थक संस्कृत धातु मद्' के अन्त्य हलन्त व्याजन के स्थान पर प्राकृत-भाषा में द्विस्व रूप से 'ध' का आदेश प्राप्ति होती है । जैसः-प्रजाति -पच्चइ = वह जाताहै, वह गमन करता है । नृत्यति नच्चइ = वह नाचता है । माद्यति = मच्वइ = पह गर्व करता है, अथवा वह थकता है वह प्रमाद करता है।॥४- २५ ॥
रुद-नमो वः ॥ ४-२२६ ॥ अनयोरन्त्यस्य बो भवति ॥ रुवइ । रोवइ । नवइ ।
अर्थ:-रोना' अर्थक संस्कृत धातु 'रुद्' और 'नमना, नमस्कार करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नम्' के अन्त्य ग्यजन के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'व' व्यजनाक्षर की श्रादेश प्राप्ति होती है। जैसे:-रोदिति - रुवइ अथवा रोवर = वह रोता है, वह सदन करता है । नमति = नबड़वह नमता है अथवा वह नमस्कार करता है ।। ४-२.६ ।।
उद्विजः ॥ ४-२२७ ॥